शनिवार, 28 सितंबर 2019

ऐसा रहा अमिताभ बच्चन के दादा साहब फाल्के सम्मान तक का सफर : डॉ. वीरेंद्र सिंह नेगी

संवाददाता: नई दिल्ली 


      एक्टिंग का जूनून, संघर्ष, सफलता, ठहराव, गिरना और फिर उठने, चलने, बढ़ने और शिखर  को छूने का नाम अमिताभ बच्चन।फिल्मों से जुड़े हर शख्स की ख्वाहिश या तो आस्कर अवार्ड या दादा साहब फाल्के सम्मान।


घुटनों के बल थोड़ा सा चला बॉलीवुडी बचपन और फिर जीवन के पन्द्रह पायदान (1969 से 1984) चुटकी बजा कर ऐसे चढ़ जाना कि समय की लगाम अब मेरे हाथ में हो। और फिर एकाएक एक  शूटिंग में छोटी सी दुर्घटना। 



वक्त ने अपनी लगाम खींच ली और सवार चारों खाने चित। और फिर वक्त और दुआओं का आमना-सामना। नायक ब्रिच कैंडी हास्पिटल में और उसके चहेते मंदिर, मस्जिद, गिरिजा-गुरूदवारे में। गरीब, धनवान, नेता, अभिनेता, समाजसेवी, उद्योगपति, किसान, मजदूर, सैनिक और स्कूली बच्चे सब को एक साथ नायक की वापसी चाहिए।


गजब सा सीन हो गया। दूरदर्शन, आकाशवाणी, अखबार और हास्पिटल का बुलेटिन सब दुनिया की धड़कन हो गये। सब यही प्रार्थना कर रहे हैं कि नायक ऐसे नहीं जाना चाहिए। अभी तो बहुत कुछ बाकी है ।


फिर समय ने मानी हार। कहा, ले लो नायक पर अब नहीं दूंगा उसको यश कीर्ति और गान। अब उसकी कीर्ति नहीं रहेगी उसके साथ। रख लो उसे अपने पास वैसा ही जैसा मैंने लिया था सात हिंदुस्तानी में और रेशमा शेहरा में। अब नहीं गूंज सकेंगी इस खुद्दार की चीखें और न खनकेंगी जंजीर। न शोले दहकेंगे और न अब वो सिलसिला और शान होगी।


दर्शन और दर्शकों को भी समय का फैसला मंजूर। हमें हमारा नायक दे दो। नहीं चाहिए नमक हराम नहीं चाहिए बेरहम, बेमिसाल, बेशरम, याराना और दोस्ताना। और नहीं चाहिए नास्तिक, दो और दो पांच,  नहीं बनना है मर्द और महान। शक्ति  होगी तो तोड देगा हर दीवार। राम बलराम हो, ग्रेट गैंबलर या शराबी , हम हर अदालत से छुड़ा देंगे। नायक के लिए काला पत्थर से टकरा कर अमर अकबर एंथनी  अपना खून पसीना बहा कर डान  मिस्टर नटवरलाल से बदला लेकर अपने नसीब से कुली, आनंद,मुकद्दर का सिकंदर और देशप्रेमी सब को फरार करा देंगे। कोई लावारिस न समझें अभी आखिरी रास्ता बचा है। गंगा की सौगंध कालिया की परवरिश इतनी कमजोर नहीं कि मिलि से जुदा हो सके। नहीं भूलेंगे वे कसमें वादे चाहे अकेला इनका याराना रहे, पर हमें हर हाल में अपने शहंशाह के लिए नमक हलाल बनना है।


वक्त का मंजर मन को बहुत भाता है। और नायक वापस आता है। अपना सब कुछ गंवा बैठता है। खुद से नहीं वक्त ने शर्त जो लगाई थी। एक वक्त का नायक बिखर कर फिर समतल में मिल जाता है। अब वह फिर वैसा ही सामान्य और कई अपने जैसों से भी छोटा दिखाई देता है। 


फिर भी एक्टिंग ने उसे सिखाया था शिखर पर पहुंचने का आखिरी रास्ता। भूला नहीं था वह लगन, मेहनत और परिश्रम। उसके साथ अभी भी था उसका दृढ़ संकल्प और निश्चय। उसे मिला था जीवन दोबारा। उसे छूना था आसमां शिखर से ऊंचा। 


देहु शिवा वर मोहे, शुभकरमन तें कबहुँ न टरूँ।
न डरूँ अरसौं जब जाए लडूँ, निश्चय कर अपनी जीत करूँ ।


नायक से महानायक : 50 वर्ष लग गए अपने परिश्रम का अर्थ समझने में और सफ़र की परिणति तक पंहचने में।


दादा साहब फाल्के पुरस्कार व सम्मान के लिए करोड़ों दिलों के सरताज अमिताभ बच्चन को बधाई।



डॉ. वीरेंद्र सिंह नेगी की कलम से।