रविवार, 29 मार्च 2020

"कैसी लड़की है ये" प्रो.वीरेन्द्र सिंह नेगी की कलम से कहानी...

हिमालयी साहित्य खजाना श्रृंखला के अंतर्गत "कैसी लड़की है ये" प्रो.वीरेन्द्र सिंह नेगी की कलम से कहानी...


"कैसी लड़की है ये"


"दीदी फिर कब आओगी?" झिझकते और शरमाते हुए रम्मू ने पूछा।


"अब दोबारा क्यों आऊंगा! मैं तो हर बार नक्शे में एक नया देश खोजता हूं, अता पता पूछता हूं और चल देता हूं हर बार एक नई यात्रा पर।" गुड्डी ने अपने टॉमबॉय अंदाज में कहा।


सड़क से नीचे उतरते घुमावदार पगडंडी पर रम्मू चुपचाप आगे चलता हुआ सोच रहा है। 
"कैसी लड़की है ये"


अपनी पीठ पर रकशैक लटकाए हुए हाथ में स्टिक को लहराते हुए गुड्डी अपने दिन भर के ट्रैकिंग रोमांस को उछलते कूदते अभिव्यक्त करती हुई पीछे पीछे चल रही है। 


कुछ दिन पहले धारचूला से अर्जुन का फोन आया था। उसने बताया कि बरसात खत्म हो गई है रास्ते खुल गए हैं। सड़क भी नागलिंग से आगे तक चली गई है।



"आप आ जाओ, मैं भी आजकल खाली चल रहा हूं। दीदी मेरे लिए 7 नंबर का स्पोर्ट शू भी लेते आना।"
बड़े अपनेपन से अर्जुन ने कहा था।


गूगल अर्थ पर हिमालय को खोजने की सनक बेरोजगारी के दिनों से ही गुड्डी को लग गई थी। अपनी जेब खर्च का सारा पैसा साइबर कैफे में गूगल सर्च और ई-मेल करने में लगाने का चस्का उसके जीवन में एक नया शौक ले आया। हिमालय के दूरदराज गांव को देखने का, वहां की जिंदगी जीने का, वहां के लोगों सा बनने का। वेबसाइट पर बहुत सारे गांव के सुंदर सुंदर मनमोहक फोटो और लोगों की जिंदगी के क्रियाकलाप देख उसे अर्जुन का नंबर मिला था। वेबसाइट का नंबर लगने में भी एक दो साल लगे। जब एक दिन अचानक अर्जुन ने फोन उठाया तो उसकी खुशी का ठिकाना ना रहा। अप्रैल महीने के अंत में उसके एग्जाम खत्म हो जाएंगे। तब वह निकल जाएगी अपने ड्रीम डेस्टिनेशन पर।
"मुझे दांतु तक जाना है" उसने फोन पर  पूछा था। 


"नहीं वहां तो अभी बंद रहता है, वहां जाने नहीं सकते हैं।"


फोन पर इस जवाब से वह खीझ गई। उसे लगा कि पैसे के कारण अर्जुन इंटरेस्ट नहीं ले रहा है। 
"भैया मैं अकेले थोड़ी आऊंगा मेरे दोस्त भी मेरे साथ होंगे।"


"आप जुलाई के बाद फोन करना" उधर से फोन कट गया।


फिर उसने गर्मियों की छुट्टियों भर कई बार फोन लगाया पर अर्जुन ने फोन नहीं उठाया। अगस्त महीने में अचानक एक दिन अर्जुन का फोन आया। उसने कहा कि अब आप दांतु की तरफ जाने के लिए तैयार हैं तो आ जाइए। 



गुड्डी को लगा कि अब जैसे कोई न्योता मिला हो जिसे ठुकराया नहीं जा सकता। और अर्जुन का क्या भरोसा दोबारा कब फोन उठाए। अगले दिन है अपना सामान बांधा और आनंद विहार बस अड्डे से बस पकड़कर पिथौरागढ़ और दार्चुला।


"अर्जुन जी मैं आज शाम की बस पकड़ कर कल दार्चुला पहुंच जाऊंगा, आप फोन ऑन रखना।" उसने फोन पर बताया।
"कितने लोग आ रहे हैं?" उसने पूछा। कई बार फोन पर बात करने के बाद गुड्डी के टॉमबॉय अंदाज़ से वो वाकिफ हो गया था।
"अकेले" उसने बताया और बात खत्म की।


"मम्मा मैं 8 10 दिन के लिए निकल रहा हूं, अर्जुन दार्चुला में ही मिलेगा" मां को फोन पर उसने बताया। 
"मैं अकेले ही जा रहा हूं, चिंता मत करना, शायद फोन भी ना लगे" पहाड़ की सुंदर छवि को सोचते हुए आंखों में खुशी भरते हुए उसने फोन काट दिया।


पिथौरागढ़ से दार्चुला पहुंचते हुए दोपहर बाद 4 बज गए। रास्ता तो ठीक था पर कई जगह सड़क बनने का काम लगे होने के कारण बस आराम आराम से ही चली। 


दार्चुला बस स्टैंड पर बस रुकने के बाद सबसे बाद में उतरने के लिए सीट छोड़ खड़ी होने लगी तो हाथ में छड़ी और सिर पर हैट लगाए पांच फुट ऊंचा अधेड़ उम्र का व्यक्ति अंदर बढ़ा।


"आप दिल्ली से?" उसने पूछा।


"अर्जुन जी" वह बोली। अर्जुन ने रकशैक खींच कर उठा लिया। गुड्डी ने पानी की बोतल और सामान का पैकेट उठाया और अर्जुन के पीछे पीछे चल पड़ी। रास्ते में अर्जुन ने पानी की बोतल, माचिस, मोमबत्ती और कछुआछाप का पैकेट खरीदवाया। दाल रोटी खिला कर अर्जुन ने गुड्डी को कमरे में भेज कर सुबह 7 बजे तैयार रहने को कहा और अपने लिए लाया हुआ पैकेट उठा कर निकल गया। कपड़े बदल कर फोन चार्जिंग में लगा कर गुड्डी भी सोने चली गई।
कल उसका दो साल का इंतजार खत्म होने वाला था।


वह तैयार हो चुकी थी। दरवाजा खोल कर बाहर आई तो देखा अर्जुन अपना सामान उठा कर सामने खड़ा था। 


"जल्दी कीजिए एक टैक्सी जाने वाली है। नाश्ता जम्बू में करेंगे। " वो बोला।


"कमरे का किराया ?" उसने अपना रकशैक उठाते हुए पूछा।


"वापिस आकर देंगे। अभी वो काम पर चला गया है" कहते हुए अर्जुन ने उसका बैग ले लिया और सीढ़ियों से उतर कर तेज कदमों से सड़क पर चलने लगा। 
"मैं अपना बैग खुद उठाउंगा" गुड्डी उसके पीछे चलने लगी। अर्जुन कहां सुनने वाला था। सड़क के मोड़ पर जीप खड़ी थी। वे बिना बात किए उसमें बैठ गये। 


चढ़ाई पर बढ़ती जीप और काली नदी के दोनों पार बसा, भारत और नेपाल की नदी सीमा से विभाजित होता और पुल से जुड़ा दार्चुला कितना सुंदर दिखता है। "जम्मू-कश्मीरा ड्यूटी मेरि" गीत के साथ आगे बढ़ने के बाद आगे कोई बड़ा कस्बा नहीं मिला।


नाश्ते में चा-बंद खाकर आगे बढ़े। अर्जुन ने उसे सीट बदलने को कहा और ड्राईवर के साथ वाली अगली सीट पर बैठने को कहा। तभी उपर के पाखे से फाल मारते हुए एक 12-14 साल का लड़का चलती जीप पर लटक गया। गुड्डी उसे देख कर ड्राइवर को देखते हुए फिर अर्जुन को देखने लगी। बाकी सवारियां अपने में मस्त। अर्जुन मुस्कुरा दिया और आंख बंद कर सोने की कोशिश करने लगा।


"भाई इसको अंदर बिठा लेते हैं।" ड्राईवर की ओर देख कर देख कर बोली।


कुछ दूर जाकर ड्राईवर ने चढ़ाई के बाद मोड़ पर जीप रोक दी। जीप की सीट फुल थीं। लड़का भी लटकते झूलते लहराया और उतर कर आगे आया।
"क्य हुवा रे?" वो बोला
जवाब की जगह ड्राईवर ने गुड्डी की तरफ देखा। गुड्डी ने दरवाजा खोला और उसे फ्रंट सीट पर अपने बाएं और बिठा लिया।


वो बैठ गया। उसकी आंखों में एक प्यारी सी मुस्कान और गुड्डी के चेहरे पर स्नेह व कुछ अच्छा करने के भावुक चमक।


"कहां जायेंगे साब।"? थोड़ी आगे पंहुचने पर गुड्डी बोली।
"नागलिंग"। वो बोला।


"मेरु नाम  रम्मू है, दूध छोड़ कर आया। रोज आता हूं" उसने बताया।


"स्कूल नहीं जाते क्या?"
"पांच पास हो गया हुं, अभी मां-बाबा बिमार हैं, इस साल छुट्टी फर हूं।" उसने बड़े गर्व और विश्वास से कहा।


सुन कर गुड्डी मन में खुश हुई पर चेहरे पर मुस्कान दबा न सकी और उसके कंधे को अपने पास खींच कर सराहने लगी। रास्ते में उसे एक अंजान पर अच्छा लगने वाला प्यारा साथी जो मिल गया।


गांव पंहुचने पर अर्जुन ने बताया कि दाल भात या मैगी खा कर जल्दी आगे बढ़ेंगे, आगे सड़क नहीं है। सामान उतार कर वे दुकान की ओर बढ़ने लगे।


"दीदी ड्राईवर को पांच सौ रुपए दे दो।" अर्जुन ने कहा। गुड्डी को ने पैसे अर्जुन को ही पकड़ा दिए। 


"दीदी खाणु  खाने हमारे मकान पर चलो।" रम्मू ने आग्रह किया। गुड्डी ने अर्जुन की तरफ देखा। अर्जुन ने  हामी भरी और बैग उठाया कर चल दिए। टेढ़े मेढे रास्ते, घर, दिवाल, गोर भैंसों, भेड़-बकरे, कटी फसल का ढेर, सूखते दाल, सब्जी, लकड़ी, घास पात के ढेर और अपने काम में मग्न घरों के महिला पुरुष व बच्चे।


गांव की खुशबू में गुड्डी खो गई, पता ही न लगा कब वे बहुत सारे घरों को पार कर रम्मू के घर पंहुच गए। मां बाबा ठीक ठाक लगे, बीमार नहीं, बस थोड़े उम्र से थके से।


उन्हें देखते ही रम्मू की मां ने बिना कुछ पूछे चटाई बिछाकर हाथ में पानी और गुड़ से उनका स्वागत किया। जैसे उनका ही इंतजार कर रही हो। अर्जुन भी बिना औपचारिकता के जूते उतार कर हाथ मुंह धोकर आसन पर बैठ गया। गुड्डी इधर उधर घूम कर फोटो खींचने लगी। वहां की भैंस, गाय और बकरी के छौने को घास पत्ते खिलाने में उसे मजा आने लगा।



रम्मू के बाबा ने छोटी छाकल, जग गिलास, ताजी खकड़ी और पिसे लूण रखने वाली लकड़ी की डिबिया  सामने रख दी। लहसुन, पुदीने और धनिया का  लूण और छांच पीकर और पहाड़ी खकड़ी की लंबी फांक खाकर उन्हें सुस्ताने का मन हुआ। रम्मू ने बताया कि उपर का भीतरि खोल वाले कमरे में आराम करो। घंटे भर बाद नींद खुली तो गरमागरम दाल भात, हैरि भुज्जी और दाल की चटनी तैयार थी। पेट भर खाने के बाद उसने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन मुस्कुरा दिया।
"कल सुबेर ही चलेंगे, आप घूम लीजिए।" 


अर्जुन ने जैसे उसके मन की बात कह दी। रम्मू की मां खेत जा रहीं हैं, गुड्डी और रम्मू भी साथ हो लिए। खेत के भीटों व मेंड़ की घास व झाड़ काटने का काम, चलते जानवरों को पानी पिलाने, हांककर घर लाने, छान में बांधने और रास्ते में पानी भर लाने का काम। यह सब देखकर गुड्डी को अपना कुछ खोया हुआ पाने का सा अहसास हो रहा था। उसके भीतर एक असीम सुख और अछूती भावनाएं उमड़ रही थी। 


चूल्हे की आग जलाने, खाना बनाने और एक साथ ज़मीन पर बैठकर खाना। वो भी घर पर बना घी, दही, दूध और कोदू की रोटी सब उसके सपनों के पूरे होने सा था।


"कल हम बालिंग दुगतु  दांतु चलेंगे" सोने जाते अर्जुन ने कहा। 
रम्मू बोला "मैं भी साथ चलूंगा"। 
रम्मू की मां ने बाबा की ओर देखा और फिर सब सहज हो गया।



सुबह मां बाबा को गले मिलकर गुड्डी ने मां की आंखों में नमी महसूस की वही नमी जो अपने घर से दिल्ली आते हर बार वो मां पिताजी की आंखों में देखती है पर जिसके प्रत्युत्तर में आज तक उसने कभी एक भी  आंसू नहीं छलकने दिया। 
"मैं फिर आऊंगा, आप उदास मत होना, आपका बड़ा बेटा हूं मैं" गुड्डी अपने टॉमबॉय अंदाज में फिर बोली।


सड़क से नीचे उतरते घुमावदार पगडंडी पर रम्मू चुपचाप आगे चलता हुआ सोच रहा है। 
"कैसी लड़की है ये"।