बुधवार, 29 अप्रैल 2020

" न जाने होश खो बैठी बसन्त की ये रवानी" धीरज मणि डबराल की कलम से...

" न जाने होश खो बैठी बसन्त की ये रवानी " कवि धीरज मणि डबराल की कलम से...


 


 " न जाने होश खो बैठी बसन्त की ये रवानी "


 


न जाने होश खो बैठी बसन्त की ये रवानी।
जहाँ लिक्खी दरिंदों ने दर्द जख्मों की कहानी।।


वो यौवन की कली बनकर नहीं अहसास धोखे का।
हवस के शोले आँखों में टपकता इश्क़ नादानी।।


जहाँ था खौफ का मंजर वहीं तूफान भी भारी।
हवाएं रुख बदलकर भी न कुछ कर पाई अनजानी।।


कभी कुदरत सजाती है वहाँ गुलशन की बारातें।
हुई बेआबरू दुल्हन किसी ने भी न पहचानी।।


जहाँ गैरों की मंज़िल हो नहीं होता कोई अपना।
नहीं मोहताज़ होते हैं जहाँ रिश्ते हों जिस्मानी।।


कहीं जालिम निगाहों में कहाँ कोई है महफूज़।
लपेटे में फँसी दामनी न कर पाई आनाकानी।।


मिटे हैं सब दरिंदे फिर मिटी इनकी जवानी।
मिला इंसाफ दामनी को रूह तेरी हो रूहानी।।