हरि सिंह रावत @ नई दिल्ली
दिल्ली विश्वविद्यालय के कैम्पस में हालही में कथित तौर पर बिना अनुमति के स्थापित की गई भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस की संयुक्त प्रतिमा के साथ लगी वीर सावरकर की प्रतिमा को विरूपित और अपमानित करने का मामला सामने आया है।
सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल से जुड़े दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संगठन के कुछ सदस्यों द्वारा नॉर्थ कैम्पस की आर्ट फ़ैकल्टि में स्थापित की गई उक्त संयुक्त प्रतिमा से जुड़ी सावरकर की प्रतिमा पर जूतों की माला डाली गई और उसके बाद काली स्याही उड़ेल कर विकृत करने का प्रयास किया गया। घटना के बाद विश्वविद्यालय के छात्रों में काफी रोष देखा गया तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानानियों को इस प्रकार से अपमानित किए जाने का खुल कर विरोध भी देखने को मिला। छात्रों का कहना है कि सावरकर से असहमत होना आपका और हमारा संवैधानिक अधिकार हो सकता है किन्तु उनका या किसी भी अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का इस प्रकार से अपमान किया जाना अत्यंत दुखद एवं अशोभनीय है।
सावरकर की विचारधार से असहमति किसी को भी सावरकर के योगदान और बलिदान को कम करके आँकने का अधिकार नहीं देती। देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए हर भारतीय ने अपने तरीके से योगदान दिया है और हर प्रकार की विचारधारा वाले संगठन अस्तित्व में रहे हैं। इसलिए, आज आज़ादी से सात दशक बाद किसी भी संगठन को कमतर आँकने और अपमानित करने के प्रयास के पीछे कोरी राजनीति छिपी हुई है और कुछ नहीं। बताते चलें कि महाराष्ट्र के नासिक जनपद में वर्ष 1909 में जन्में विनायक दामोदर सावरकर को मदनलाल ढींगरा के साथ अंग्रेज अफसर कर्जन की हत्या में संलिप्त होने और स्वतन्त्रता संबंधी साहित्य सृजित करने के जुर्म में आजीवन कारावास दिया गया।
वे एक मात्र स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिन्हें दो बार काला पानी की सजा सुनाई गई। वे अंडमान-निकोबार स्थित सेलुलर जेल में कैद रहे। सन् 1857 के गदर को प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम के रूप में स्थापित करने वाले सावरकर एक प्रखर वक्ता, प्रतिष्ठित वकील, कवि और लेखक भी थे। उनकी आत्मकथा 'माझी जीवन ठेप' (मेरा आजीवन कारावास) भी खूब चर्चित रही।