हरि सिंह रावत @ नई दिल्ली
उत्तराखंड की पवित्र भूमि अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और वीर सपूतों के प्रताप से संपूर्ण भारत वर्ष में पूजनीय, अनुकरणीय व नमनीय मानी जाती है। गंगा-यमुना की यह पावन उद्गम स्थली 'गढ़वाल राइफल्स' तथा 'कुमायूं रेज़िमेंट' जैसी वीर सेना टुकड़ियों की आत्मजा भी है। भारत-चीन युद्ध हो या कारगिल की रणभूमि, इस धरती के वीर पुत्रों ने शौर्य और बलिदान के नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। न केवल स्वतंत्र भारत की सीमाओं के रक्षार्थ अपितु स्वतन्त्रता पूर्व भी देवभूमि के अनगिनत जियालों ने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत माता की सेवा वेदी में आहूत किया है।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी 'कप्तान' रामप्रसाद नौटियाल संघर्ष और बलिदान की इस शृंखला की एक और स्वर्णिम कडी हैं जिन्हें उनके निर्भीक स्वभाव व उद्दात प्रकृति के लिए 'शेर-ए-गढ़वाल' नाम से भी अलंकृत किया गया।
सन् 1919, उत्तराखंड के एक विद्यालय में कई छात्रों ने स्वन्त्रता के पक्ष में नारेबाजी आरंभ कर दी। तेरह-चौदह वर्षीय एक बालक अग्रिम पंक्ति में खड़े हो कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था – 'भारत माता की जय', 'वंदे मातरम्','इंकलाब जिंदाबाद !
नारेबाजी से गुस्साई पुलिस के अचानक हमले ने छात्रों की भीड़ को रौंदना शुरू कर दिया और कई छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिनमें से एक उक्त तरुण छात्र भी था। तीन सप्ताह के सश्रम कारावास की सजा और विद्यालय से स्थाई निष्कासन मिलने के बाद वह घर लौटने का साहस नहीं कर पाया और भटकते- भटकते मेरठ पहुँचा, जहाँ उसे ब्रिटिश सेना के एक पहाड़ी रसोइए ने अपने साथ रख लिया। कुछ समय बाद युवा रामप्रसाद यहीं से ब्रिटिश सेना में भर्ती हुए और बलूचिस्तान भेज दिये गए। लगभग तीन वर्ष बाद उनका स्थानांतरण लाहौर कर दिया गया जहां क्रांतिकारियों के संपर्क में आने से उनका मन पुनः स्वतंत्रता आंदोलन की ओर मुड़ना आरंभ हुआ और वे नौकरी छोडकर कांग्रेस सेवा दल में शामिल हो गए।
सौंडर्स की हत्या और क्रांतिकारियों की गिरफ्तारियाँ:
इन्ही दिनों सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव भी लाहौर में अनवरत रूप से आया-जाया करते थे; जिन्होंने बाद में 'लाला लाजपत राय' की मृत्यु के प्रतिशोध में ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सौंडर्स की गोली मार कर हत्या दी। सौंडर्स की मौत के बाद क्रांतिकारियों की धर-पकड़ तेज हो गई। रामप्रसाद नौटियाल व उनके साथियों की सरकार विरोधी गतिविधियां भी चरम पर थीं। गिरफ्तारी से बचने के लिए वे भेष बदलकर हिमाचल प्रदेश भाग गए। अंततोगत्वा, चंबा जनपद के शाहपुर से गिरफ्तारी हुई और पूछताछ व मुकदमें के लिए लाहौर जेल भेज दिया गया। लाहौर जेल में अन्य क्रांतिकारियों के समान ही तरह-तरह की यातनाएं सहन करनी पड़ीं और सौंडर्स मर्डर काण्ड में शामिल होने की बात कबूलने के लिए बाध्य करने की कोशिश की गई। किन्तु सारी कोशिशें असफल रहने पर पुलिस को उन्हें रिहा करना पड़ा।
गढ़वाल व कुमाऊं में सत्याग्रह
29 दिसम्बर 1929 को जेल से रिहा होने के बाद उन्हें काँग्रेस के कुमांऊ सत्याग्रह दल का पर्यवेक्षक बनाकर 'रानीखेत' भेज दिया गया। यहाँ पहुंचकर उन्होंने गढ़वाल व कुमाऊं मंडलों में सत्याग्रह कैंप चलाये और सैकड़ों कार्यकर्ताओं को देश सेवा के लिए प्रेरित किया। जिसके फलस्वरूप 76 मालगुजारों व थोकदारों (गांवों में अंग्रेज़ सरकार के प्रतिनिधि) ने अपने पदों से त्याग पत्र दे दिया तथा अंग्रेज सरकार के विरुद्ध लड़ाई में अपना योगदान देने लगे। इसी दौरान रामप्रसाद अपने साथियों के बीच 'कप्तान (captain)' उपनाम से प्रसिद्ध हुए।
गवर्नर मैल्कम हेली (Malcolm Hailey) को काला झण्डा दिखाने की घटना:-
तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर मैलकॉम हेली का पौड़ी (गढ़वाल) दौर था, यह खबर मिलते ही रामप्रसाद व उनके दल ने गवर्नर को काले झंडे दिखने और उसका बायकॉट करने की योजना बनाई। इस कार्य को अंजाम देने के लिए 'जयानंद भारतीय' को चुना गया। युवा जयानंद को लेकर रामप्रसाद पौड़ी पहुंचे, जहां जयानंद व साथियों ने गवर्नर के दरबार में घुसकर कर काला ध्वज लहराया व 'वंदे मातरम्' का घोष किया और 'गवर्नर गो बैक' के नारे लगाते हुए गिरफ्तारी दी। योजना के अनुसार रामप्रसाद पुलिस को चकमा देकर भाग निकले व गिरफ्तार किए गए साथियों के परिवारों की देखभाल का उत्तरदायित्व लिया। बाद में, इन्हीं 'जयानंद भारतीय' के साथ मिलकर 'डोला-पालकी, 'बेगार प्रथा' व 'छुआ-छूत' जैसी पुरातन रूढ़ियों को समाप्त करने के लिए भी व्यापक जन-जागरण कार्यक्रम भी चलाये गए जिसमें लखनऊ न्यायालय में ऐतिहासिक कानूनी जीत भी मिली।
मैं ब्रिटिशनागरिक नहीं हूँ:-
एक बार दुग्गड्डा (कोटद्वार) क्षेत्र में प्रभात-फेरी से लौटते समय अचानक कर्नल इब्ट्सन व उनके जवान आ धमके। गंगा सिंह नामक एक छात्र अपने हाथ में तिरंगा लिए हुए जोर-जोर से आजादी के नारे लगा रहा था और कर्नल इब्ट्सन के निकट पहुँच जाने पर भी चुप नहीं हुआ; कर्नल गुस्से में आपा खो बैठा और अपने घोड़े पर बैठकर ही कोड़ों की बरसात कर दी, बालक 'गंगा' बेहोश होकर गिर पड़ा। इब्ट्सन को इस पर भी चैन नहीं आया; वह धोड़े से उतरा व बेहोश बालक को जोर-ज़ोर से लातें मारने लगा, यह देख कप्तान ने क्रोधवश इब्ट्सन पर हमला बोल दिया और उसे गंभीर रूप से चोटिल कर दिया।
इस प्रकार,पुनः गिरफ्तारी हुई और कोटद्वार (गढ़वाल) सत्र न्यायालय में मुकदमा आरंभ हुआ।
इब्ट्सन के वकील ने अपना पक्ष रखना शुरू किया; तहरीर पूरी हुई तो जज ने रामप्रसाद से कहा, "तुम्हें कुछ कहना है?"
रामप्रसाद जान-बूझकर जोर से बोले,
“मैं अपने आप को ब्रिटिश नागरिक नहीं मानता अतः इस ब्रिटिश कोर्ट में कुछ भी कहना मेरे लिए अपमानजनक होगा।”
अंततोगत्वा, उन्हें सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई व बरेली सेंट्रल जेल भेज दिया गया।
लैंसडाउन (गढ़वाल) पर कब्ज़ा कर प्रशासन को जनता के अधीन करने की योजना:-
1942 का समय था, गाँधी जी “भारत छोडो ” आंदोलन का श्रीगणेश कर चुके थे। “करो या मरो” की ललकार से भारत वर्ष का कण-कण गूंज रहा था। देश भर में कई क्रन्तिकारी वीरों ने जगह-जगह सरकारी व्यस्था को उखाड़ फेंक जनता का नियंत्रण स्थापित कर दिया था। कप्तान रामप्रसाद व उनके दल ने भी लैंसडाउन (गढ़वाल) कोर्ट पर कब्ज़ा कर प्रशासन को जनता के अधीन करने का प्रण लिया। योजना थी कि, 27 अगस्त 1942 को हजारों की संख्या में जनता व क्रांतिकारियों की भीड़ लैंसडाउन पर धावा बोलेगी, सबसे पहले एक टीम लैंसडाउन को जोड़ने वाली टेलीफोन लाइनकाट देगी, उसके बाद लैंसडाउन अदालत पर कब्ज़ा किया जायेगा व ट्रेज़री को कब्जे में कर प्रशासन को जनता के अधीन कर दिया जायेगा। इस हेतु हथियारों की व्यवस्था का उत्तरदायित्व रामप्रसाद ने स्वयं लिया और कर्णप्रयाग में P.W.D के स्टोर से 7 पेटी डायनामाइट लूटकर बिस्फोटक तैयार किए।
दुर्भाग्यवश, क्रांतिकारियों की महत्वपूर्ण बैठकों की सारी खबरें ब्रिटिश अफसर डी.सी. फर्नीड्स को पहुँच गईं। फर्नीड्स ने लैंसडाउन जाने वाले सारे मार्गों को सील करवा दिया। चौमासू पुल व बांधर पुल पर फौज का कड़ा पहरा लगा दिया गया और क्षेत्र के सारे लायसेंसी हथियार धारकों को तत्काल हाजिर होने के निर्देश जारी किए गए।
छापामारी शुरू हुई, हज़ारों कार्यकर्ता पकडे गए। योजना असफल रही किन्तु इससे स्थानीय अंग्रेज प्रशासन बुरी तरह घबरा गया व भड़क गया; और पहाड़ी जनता पर अकथनीय अत्याचार हुए। जिन घरों के पुरुष सदस्य क्रांतिकारी गतिविधियों में पकड़े जाते या भगोड़े घोषित किए जाते उन घरों की महिलाओं के साथ घरों में घुसकर बदसुलूकी की जाने लगी। इन सबके विरोध में साथी क्रांतिकारी 'कांतिचंद उनियाल' ने कुमरथा गांव के पास एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी, जिसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
पिता-पुत्र की मृत्यु व पुनः गिरफ्तारी:-
इसी बीचरामप्रसाद के पिता का स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ जाने की खबर मिली। किसी तरह छुपते-छुपाते घर पहुंचे तो पता चला कि न केवल पिता बल्कि उनका पुत्र भी मरणासन्न स्थिति में है (पुत्र की मृत्यु उसी दिन हो गई और कुछ ही दिन बाद पिता भी चल बसे)। उसी रात को लगभग तीन बजे अंग्रेज फौज के दो सौ जवानों ने कप्तान के मकान पर घेरा डाल दिया।
ब्रिटिश पुलिस के एक अधिकारी ने घर में घुसने का प्रयास किया तो रामप्रसाद ने अपनी पिस्तौल से फ़ायरिंग आरंभ कर दी; ब्रिटिश फ़ौज ने भी जवाबी फ़ायरिंग की। संभावित रक्तपात से बचने के लिए यह निर्णय लिया गया कि घर में दाख़िल होकर परिवार को प्रताड़ित न किया जाए; हालांकि, यह शर्त रखी गई कि सुबह होते ही कप्तान को आत्मसमर्पण करना होगा।
सुबह कप्तान ने यह कह कर हथकड़ी पहनने से इंकार कर दिया कि वे कोई मामूली चोर नहीं हैं। जितना समय बीतता गया, खबर फैलती गई और हजारों की संख्या में जनता एकत्रित हो गई। अंततः ब्रिटिश अधिकारियों को घुटने टेकने पड़े। घोड़े की सवारी में ढ़ोल-दमाऊ (पहाड़ी वाद्य) के साथ बीरोंखाल (ब्लॉक मुख्यालय) की सीमा तक विशाल जन समुदाय अपने कप्तान को विदाई देने पीछे-पीछे चल पड़ा।
एक स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी की गिरफ्तारी पर उमड़ी इस भीड़ ने जन मानस में स्वतन्त्रता के प्रति नई ऊर्जा उत्पन्न की। शायद, इसी उद्देश्य से रामप्रसाद ने खुद को किसी मामूली कैदी की तरह गिरफ्तार किए जाने से स्पष्ट इनकार कर दिया था।
14 जुलाई 1945 को बरेली सेंट्रल जेल से रिहा होने के बाद रामप्रसाद नौटियाल ने भारत छोड़ो आंदोलन में गढ़वाल क्षेत्र का कुशलता पूर्वक नेतृत्व किया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद:-
रामप्रसाद नौटियाल न केवल एक निर्भीक क्रांतिकारी थे बल्कि एक दूरदर्शी नायक भी थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए उन्होंने जनता के सहयोग व श्रमदान से विभिन्न सड़क मार्गों का निर्माण करवाया (आज इन सड़कों का एक बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय राजमार्ग के अंतर्गत आता है), जिसमें रामनगर-मरचूला-बीरोंखाल-थलीसैण और डेरियाखाल-रिखणीखाल–बीरोंखाल मोटर मार्ग प्रमुख हैं। सड़क मार्ग तैयार होने के बाद सबसे बड़ी समस्या यह थी कि स्थानीय प्रशासन के पास कोई गाड़ियां नही थीं। इसके लिए कोऑपरेटिव सोसाइटीज़ का गठन कर जनता से शेयर्स के रूप में धन एकत्र किया;तब जाकर दो सेकंड-हैण्ड बसें ख़रीदीगईं। तत्पश्चात,उन्होंने 'गढ़वाल मोटर यूजर्स कोऑपरेटिव ट्रांसपोर्ट सोसाइटी' की नींव रखी।
1950 के दौर में ही 'वित्तीय समावेशन' के महत्व को समझते हुए उन्होंने गढ़वाल व कुमाऊं में कोऑपरेटिवबैंक खुलवाए (लैंसडाउन, बीरोंखाल, नौगाँवखाल आदि) तथा उनकेसुचारू संचालन के लिए जनता में वित्तीय जागरूकता उत्पन्न की व छोटी-छोटी कीमत के शेयर्स चलाये; सबसे पहले खुद शेयर खरीदे व जनता को हिस्सेदार बनाकर क्षेत्र के वित्तीय सशक्तिकरण का दूरदर्शी कार्य करने का प्रयास किया।
प्रशस्ति:-
सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं 'पहाड़' (People's Association for Himalayan Area Research) के अधिष्ठापक व पद्मश्री से सम्मानित डॉ. शेखर पाठक ने 1 अगस्त 1905 को 'कांडा (खाटली), बीरोंखाल, गढ़वाल (उत्तराखंड)' में जन्में कप्तान रामप्रसाद नौटियाल को उनके आजीवन संधर्ष के लिए गढ़वाल में भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का नायक बताया। गढ़वाल के मालगुजारों व थोकदारों के ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एकीकरण और उनके निर्भीक व्यक्तित्व के लिए उन्हें गढ़वाल का 'लौह पुरुष' भी कहा जाता है। 'भारत रत्न' गोविन्द बल्लभ पन्त उन्हें'लोहा' कहा करते थे, “जिससे समय आने पर हथौड़ा भी बनाया जा सकता है तो बन्दूक भी बनाई जा सकती है”।