मंगलवार, 2 जून 2020

कहीं ये प्रकृति के साथ बदतमीजी का परिणाम तो नहीं : डाॅ. नवरत्न

डाॅ. नवरत्न (सहायक प्रोफैसर) जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान ,भिवानी की कलम से...


      लगभग पूरी दुनिया लॉकडाउन में है। हवा से बातें करने वाले वैश्विक योद्धाओं और महाशक्तियों की गति थम गई है । उन्हें सूझ नहीं रहा है कि संकट की इस घड़ी में क्या ठीक है और क्या गलत है ? पूरी दुनिया में करीब बीस लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हैं और मरने वालों की संख्या करीब डेढ़ लाख से पार हो गई है। मानव जीवन अस्त-व्यस्त है। हर तरफ कोरोना का कहर जारी है।यही नहीं बीच-बीच में कोरोना से एकदम अलग तरह की खबरें भी सुनने को मिल रही हैं।

 

मसलन,पाकिस्तान और अरब देशों के कुछ हिस्सों में बाढ़ से जनजीवन अस्त-व्यस्त और दक्षिणी अमेरिका में भयंकर तूफान की तबाही से करीब तीस लोगों की मौत ...टेक्सास ,अटकैंसास,  लूसीयाना, मिसीसिपी,अलाबामा, जॉर्जिया और कैरीलीना जैसे इलाकों में तूफान ने भयंकर तबाही मचाई है। दस लाख से अधिक गांवों और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में बिजली गुल रही। दुनियां के प्रमुख सामाजिक विज्ञानी मौजूदा समय को पिछले सो सालों का भयंकरतम समय बता रहे हैं।

 

भारत में भी राजधानी दिल्ली के साथ-साथ दुनिया के अनेक हिस्सों में भूकंप के झटके महसूस हुए। प्राकृतिक आपदाओं का ये कहर पलटकर पीछे देखने और अब तक की जीवन यात्रा को एक बार फिर से विश्लेषण करने की मांग करता है। ऐसे हालात तो  संभवत दूसरे महायुद्ध के समय भी नहीं रहे। लॉकडाउन के इस समय में जब हमारे पास कुछ खास करने को नहीं है और समय इफरात में है तो इसमें पलट कर देखना तो बनता ही है कि वह कौन से हालात रहे, वह कौन से कारण  रहे,जिनसे वर्तमान हालात पैदा हुए और यह दुनिया नरक से भी बदतर हो गई।

 

 कुछ आंकड़ों की बात करें तो ये आंकड़े चौंकने पर विवश करते हैं। अमेरिका दुनिया की सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था और चीन जिसके पास दुनिया का सबसे ताकतवर स्वास्थ्य तंत्र है... साथ ही स्पेन, इटली,फ्रांस,बेल्जियम ये ऐसे देश हैं जिनकी रफ्तार से पूरी दुनिया की रफ्तार तय होती है।आज घुटनों के बल रेंग रहे हैं। अकेला अमेरिका का रक्षा बजट एक सौ नौ लाख करोड़ डॉलर का है और वह अपने नागरिकों पर प्रति व्यक्ति करीब साढे़ सात लाख रुपए सालाना खर्च करता है। उसके पास परमाणु हथियार हैं और वह यदि एक बार बटन दबा दे तो यह दुनियां, यह पृथ्वी ग्रह सात बार छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर जाए। ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जो हमें एक बार पुनःविचार करने को विवश करते हैं कि यह हमने कैसी दुनिया बनाई है।

 

मोटे रुप से यदि देखा जाए तो अब तक दुनिया में सिर्फ दो प्रकार की जीवन पद्धतियां देखने को मिलती हैं। एक अरस्तोलियन जीवन पद्धति जिस पर वर्तमान दुनिया जीवन यापन कर रही है।दूसरी लाओत्सुअन जीवन पद्धति ...जिसकी जापान जैसे देशों में चर्चा हो रही है। अरस्तोलियन जीवन पद्धति में प्रकृति के साथ निरंतर संघर्ष और येन केन प्रकारेण प्रकृति को जीत लेना ही मानव जीवन का प्रमुख धयेय है जबकि लाओत्सुअन जीवन पद्धति में प्रकृति सर्वशक्तिमान है स्वर्ग उसके सहयोग से अर्जित एक अवस्था है।उसके साथ विनम्र सहयोग करके उसी स्वर्ग अवस्था को हासिल करना ही मानव जीवन का चरमोत्कर्ष है।

 

दोनों जीवन पद्धतियों में मूलतः दिन रात का अंतर है। दोनों एक दूसरी की धुर विरोधी हैं तथा एक प्रकृति से जीतने की तो दूसरी प्रकृति से हारने की... वह भी पूर्ण विनम्रता के साथ हारने की हिमायत करती है। यानि उदाहरण के लिए यदि मच्छर काटता है और नींद में ख़लल पैदा करता है तो अरस्तू कहता है कि मच्छर मारने की दवा इजाद करके या कछुआ छाप अगरबत्ती बनाकर मच्छर को मार दो और सो जाओ।

 

जबकि लाओत्सू कहता है कि मच्छर और शरीर के बीच संघर्ष की अपेक्षा शरीर में मच्छर से उत्पन्न मत्सर को सहन करने की क्षमता को अर्जित करो।यानि लाओत्सू का मानना है कि मच्छर भी जरूरी है इस प्राकृतिक तंत्र के लिए।प्रकृति के इस विराट ताने बाने में यदि मच्छर को  मार दिया गया तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप कोई और समस्या उत्पन्न होगी और इस तरह फिर एक कभी न खत्म होने वाला खतरनाक संघर्ष शुरू होगा।

 

प्रकृति सर्वशक्तिमान है। अंततः वह जीतती ही है।उस को जीतने का कोई कारण भी नहीं है और जीता भी नहीं जा सकता। लेकिन विज्ञान को यह घमंड है कि वह व्यक्ति को हरा देगा और पश्चिमी जगत इसी जिद्द का शायद परिणाम भुगत रहा है। हमने जंगलों को बहुत खतरनाक तरीके से उजाड़ दिया। नदियों को बड़ी बेरहमी से गंदा कर दिया। प्राणी जगत को बड़ी बदतमीजी से मार कर खा लिया। कुछ प्रजातियां समाप्त हो गई और कुछ समाप्ति की और हैं। हमने पहाड़ों और जंगलों का बेरहमी से दोहन किया है। धरती की कोख से वह सब निकाल लिया है जिसकी हमें या तो जरुरत ही नहीं थी अथवा थी तो इतनी ज्यादा मात्रा में नहीं थी। थोड़े मर्यादित रहकर हम उसका इस्तेमाल करते तो भी हमारा काम चल सकता था। पिछले दिनों लोक डाउन के दौरान जब सब कुछ शांत हुआ तो खबरें आई कि दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में भी करीब तीन दशक बाद आसमान दिखा और बच्चों ने तारे टिमटिमाते देखें।

 

चंडीगढ की सड़कों पर नजदीक के मोरनी और कालका के जंगलों से हाथी हिरण और चीता सड़कों पर घूमते दिखे। पर्यावरण प्रदूषण में आश्चर्यजनक गिरावट दर्ज हुई। यमुना का जल नीला और साफ दिखा। क्योंकि इसके किनारे लगे हजारों चमड़ा उद्योग की ईकाइयां और दूसरी वाणिज्य गतिविधियां बंद रही।हालांकि यह वक्त पूरी दुनिया के साथ-साथ हमारे लिए भी विचारणीय है। कुदरत ने शायद हमें एक मौका दिया है एक बार पुनःविचार करने का कि क्यों हम बड़े आराम से इस महामारी के खतरनाक पंजों से बचे हुए हैं।मतलब उतना नुकसान नहीं हुआ जितना संभावित था। क्योंकि थोड़ी बहुत पुरानी जीवन पद्धति के धुंधले निशान हमारे पास बचे हुए हैं। हम स्वभाव से मित्र वही और संयमित देश हैं। हमारे पास आयुर्वेद के रूप में दुनिया का समृद्धतम स्वास्थ रक्षा तंत्र है जिस पर हमें गर्व करना चाहिए।हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता दुनियां के मुकाबले आज भी अच्छी है।

 

हमारे पास योग वह ध्यान की अनूठी पद्धतियां हैं जो प्रकृति के साथ पूर्ण सामंजस्य बना कर एक श्रेष्ठ जीवन पद्धति की और संकेत करती है। गांधी के बाद प्रधानमंत्री मोदी देश ही नहीं दुनिया के अनूठे राष्ट्र नेता के रुप में उभरे हैं। वह अपनी लोकप्रियता के चरम पर हैं।उनकी एक-एक बात का जनता अक्षरसः पालन करती है। उन्हें अब देश की जनता का आह्वान कर कहना चाहिए कि पश्चिमी अंधानुकरण छोड़ें और भारतीय जीवन पद्धति की जड़ की और लौटें।

 

यह वह समय है जब पश्चिम की चकाचौंध और भागमभाग  जीवन पद्धति का मुलम्मा उतर गया है। हमें उन का अंधानुकरण करने की आवश्यकता नहीं है। चीन में लॉओत्सू और भारत में भगवान बुद्ध लगभग समकालीन थे और दोनों इस बात पर सहमत थे कि यह पूरा अस्तित्व और पारिस्थितिकी एक मकड़ी के जाले की तरह आपस में जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार मकड़ी के जाले के एक तार को छेड़ते हैं तो पूरा जाला कंपता है।

 

उसी प्रकार हम सब एक दूसरे व पारिस्थितिकी तंत्र के साथ जुड़े हैं। प्रकृति में छोटे से छोटा कण और छोटे से छोटा कीट पतंगा इस विराट अस्तित्व का हिस्सा है। यहां कुछ भी गैरज़रुरी नहीं है। प्रकृति सदा से इतना तो देती है कि सब का भरण पोषण हो सके तो फिर चमगादड़, कुत्ते- बिल्लियों और कीड़े मकौड़े  मारकर खाना किस जीवन पद्धति में आता है... यह समझ से परे है। चीन में लाओत्सू, भारत में भगवान बुद्ध,अरब में मोहम्मद मूसा और यूरोप में इसा मसीह एक बात तो सामूहिक रुप से कहते रहे हैं " वसुधैव कुटुंबकम" यानी पूरा विश्व एक परिवार है।