गुरुवार, 11 जून 2020

विधायिका की मनमानी पर अंकुश...

संवाददाता : देहरादून उत्तराखंड 


      हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में लोकतंत्र को सुव्यवस्थित रखने के लिए न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को लगभग बराबर-बराबर अधिकार देकर उनके कर्तव्य भी निर्धारित कर दिये हैं। इसके साथ ही तीनों को एक दूसरे पर आश्रित भी कर दिया।


यह जानते हुए भी उत्तराखंड में त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुविधाओं की सौगात देने के लिए न्यायपालिका से टकराने का दुस्साहस किया था। नैनीताल हाईकोर्ट ने सरकार के इरादों पर पानी फेर दिया। जनतंत्र के मूल में जन अर्थात जनता होती है। इसलिए विधायिका अपने को सबसे श्रेष्ठ मानती है क्योंकि वह जनता के माध्यम से निर्वाचित होकर विधानसभा और संसद में पहुंचती है। यही कारण रहा होगा कि पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने वहां के राज्यपाल जगदीप धनखड से कह दिया कि राज्य पाल यह मत भूलें कि वे मनोनीत होकर इस कुर्सी पर बैठे हैं और मुझे जनता ने चुनकर मुख्यमंत्री बनाया है।



इस उदाहरण से विधायिका की निरंकुश भावना का भी पता चलता है। हालांकि कभी कभी विधायिका का यह गुरूर कार्यपालिका भी तोड़ देती है। निर्वाचन आयोग जैसी स्वायत्त संस्था चुनाव के समय अपने इशारे पर नचाती है। इसी तरह केन्द्र शासित प्रदेश में उपराज्यपाल नामक नौकरशाह विधायिका को अपनी मुट्ठी में रखता है। उपराज्यपाल केन्द्रीय गृहमंत्रालय का प्रतिनिधित्व करते हैं।


दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार को उपराज्यपाल ने आज तक खुलकर काम नहीं करने दिया। इसलिए विधायिका को भी मनमानी नहीं करना चाहिए। उत्तराखंड में त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने हाईकोर्ट से जिस प्रकार झटका खाया है, उससे अन्य राज्य सरकारों को भी सबक लेना चाहिए। विशेष रूप से जब सरकार की नीयत में खोट होती है तो उसे इसी तरह की शर्मिन्दगी उठानी पडती है।उत्तराखंड हाईकोर्ट से राज्य सरकार को बड़ा झटका लगा है। पूर्व मुख्यमंत्रियों को किराए और अन्य सुविधाओं में छूट देने के लिए बनाए गए कानून को नैनीताल हाईकोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है। अब सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को बाजार भाव से किराया देना होगा और अन्य सुविधाओं का पैसा देना होगा।


इससे पहले 23 मार्च को इस मामले में सुनवाई पूरी कर चीफ जस्टिस की कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था। इससे पहले भी हाईकोर्ट ने सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों से बाजार भाव से किराया वसूलने का आदेश दिया था लेकिन सरकार ने इसकी काट के लिए कानून बना दिया था। सरकार के कानून बनाने को रूलक संस्था ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी।उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्रियों को राज्य सरकार की ओर से बंगला, गाड़ी समेत कई सुविधाएं मिलती थीं। रूलक संस्था के अवधेश कौशल ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी थी जिसके बाद हाईकोर्ट के आदेश पर सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों ने ये सुविधाएं वापस कर दी थीं।


याचिका में जिस अवधि तक पूर्व मुख्यमंत्रियों ने सुविधाओं का इस्तेमाल किया है उनका किराया और अन्य भुगतान उन्हीं से वसूलने की मांग भी की गई थी। हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने 3 मई, 2019 को जारी आदेश में कहा था कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगले, गाड़ी आदि सभी सुविधाओं का किराया बाजार भाव से देना होगा। हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि 6 महीने के दौरान सभी पैसा जमा करें और अगर ऐसा नहीं करते हैं तो सरकार को इनके खिलाफ वसूली की कार्रवाई शुरू करनी होगी।दो पूर्व मुख्यमंत्रियों भगत सिंह कोश्यारी और विजय बहुगुणा ने हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती भी दी लेकिन यह खारिज हो गई।


इसके बाद राज्य सरकार के लिए लगभग बाध्य हो गया था कि कोश्यारी और बहुगुणा के अलावा रमेश पोखरियाल निशंक और मेजर जनरल (रिटायर्ड) बीसी खंडूड़ी से बकाया वसूले। एक और बकाएदार पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी का केस की सुनवाई के दौरान ही निधन हो गया था। इस मामले की खास बात यह है कि मौजूदा समय में सभी पूर्व मुख्यमंत्री बीजेपी से हैं और शायद इसीलिए कोर्ट से धक्का लगने के बाद सरकार ने इन्हें राहत देने के लिए अध्यादेश लाने का फैसला किया। कैबिनेट ने फैसला किया कि पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगलों, गाड़ी के किराए का भुगतान सरकार करेगी और उन्हें सभी सुविधाएं पहले की तरह मुफ्त दी जाती रहेंगी।


5 सितम्बर, 2019 को इस अध्यादेश पर राज्यपाल के मुहर लगने के साथ ही हाईकोर्ट का फैसला निष्प्रभावी हो गया था। रूलक संस्था की ओर से अवधेश कौशल ने इस अध्यादेश को असंवैधानिक बताते हुए हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। याचिकाकर्ता के वकील कार्तिकेय हरि गुप्ता ने कहा था कि इसी तरह का मामला यूपी सरकार में भी सामने आया था, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने नए कानून को रद्द कर दिया था। सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील ने कहा था कि राज्य सरकार जो एक्ट लेकर आई है वो असंवैधानिक है और हाईकोर्ट के आदेश को ओवररूल करने के लिए ही लाया गया है।


याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने कोर्ट में कहा है कि सरकार का यह एक्ट आर्टिकल 14, यानी समानता के अधिकार के खिलाफ है। इस मामले की सुनवाई हाईकोर्ट में 23 मार्च को पूरी हो गई थी और कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। गत 9 जून को फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस की कोर्ट ने जनता के पैसे से पूर्व मुख्यमंत्रियों को मुफ्त गाड़ी-बंगले की सुविधा दिए जाने वाले कानून को असंवैधानिक करार दे दिया।यहां पर ध्यान देने की बात है कि संसद सदस्य वेतन, भत्ता और पेंशन अधिनियम 1954 के तहत सांसदों और अन्य जनप्रतिनिधियों को पेंशन मिलती है। एक पूर्व सांसद को हर महीने 20 हजार रुपये पेंशन मिलती है। लेजिस्लेटर्स इन इंडिया, सैलरीज एंड अदर फैसिलिटीज एक पुस्तक है। यह लोकसभा का प्रकाशन है।


इसका प्रकाशन जनवरी 1990 में हुआ था। इसके संपादक लोकसभा के तत्कालीन महासचिव सुभाष सी. कश्यप हैं। उस समय कितना वेतन मिलता था और आज कितना वेतन मिलता है इसकी तुलनात्मक जानकारी आश्चर्यजनक है। इस किताब में वैसे तो सांसदों और देश की सभी विधानसभाओं के सदस्यों के वेतन-भत्ते की जानकारी दी गई है, परंतु यहां मध्यप्रदेश से संबंधित जानकारी देखते हैं। वर्ष 1990 में मध्यप्रदेश के विधायकों का मासिक वेतन 1,000 रुपए था। अब वह 30,000 रुपए प्रतिमाह है। उस समय निर्वाचन क्षेत्र भत्ता 1,250 रुपए था, अब 35,000 रुपए है।


उस समय टेलीफोन भत्ता 1,200 रुपए प्रतिमाह था, आज 10,000 रुपए है। उस समय चिकित्सा भत्ता 600 रुपए था अब 10,000 रुपए है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में स्टेशनरी भत्ता 10,000 रुपए प्रतिमाह मिलता है। कम्प्यूटर ऑपरेटर/अर्दली भत्ता 15,000 रुपए मिलता है। इस तरह कुल 1,10,000 रुपए मध्यप्रदेश के विधायक को मिलते हैं। इन सब सुविधाओं के अतिरिक्त यात्रा आदि की सुविधाएं भी प्राप्त हैं। सांसदों और विधायकों को एक ऐसा भत्ता भी मिलता है, जो शायद देश तो क्या, दुनिया में भी कहीं नहीं मिलता होगा।


प्रत्येक सांसद और विधायक को दैनिक भत्ता मिलता है अर्थात उसे संसद और विधानसभा की दिनभर की कार्यवाही में शामिल होने के लिए दैनिक भत्ता मिलता है। न्यायाधीश प्रतिदिन अदालत में अपना कार्य संपन्न करते हैं, परंतु इसके लिए उन्हें दैनिक भत्ता नहीं मिलता है।


इसी तरह शासकीय कर्मचारी भी कार्यालयों में उपस्थित होकर अपना काम निपटाते हैं, परंतु इसके लिए उन्हें भी दैनिक भत्ता नहीं मिलता है। ये तमाम बातें हैं जो विधायिका को खुद के सुधार की जरूरत बताती हैं। (हिफी)