कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता कुसुम डबराल की कलम से...
"स्याह रातों में पलकों से बटोरे हमने "
स्याह रातों में पलकों से बटोरे हमने
एक बिखरे से अफ़साने के सुनहरे टुकड़े...
पलकें ही नहीं झपकती, नींद तो ख़्वाब है इक
आँखों में पिघल रहा है, कोई काँच टुकड़े टुकड़े...
एक हर्फ़ ने सुनाई अपनी दास्ताँ कुछ इस तरह
अब लफ्ज़ नज़र आता है, हर बार टुकड़े टुकड़े...
उस शख़्स के सब्र का पैमाना हूँ मैं साहब
अपनों के हाथों जो, बंट गयी है टुकड़े टुकड़े...
वो ख़त जो लिखा था नाम उसके मैंने
खुद अपना बना जवाब होकर टुकड़े टुकड़े।।