" दूरियों " कवि नारायण डबराल की कलम से...
" दूरियों "
जो ए हमारी दूरी है
बस ए एक मजबूरी है ।
फ़ासले ए जो बढ़ा दिये
न सोचना हमें ये भा गये ।
ज़ुल्फ़ों की साया माँगी पर
पैरों की बेड़ियाँ पा गये ।
जो ए हमारी दूरी है
बस ए एक मजबूरी है ।
संग-संग चलने का मन तो है
पर चार दिवारों में फँस गये।
न सोचना मन का ग़रूर है
ये मन मेरा बस मजबूर है।
साँसें व्याकुल तुझे मिलने को
पर चक्रव्यूह से मुक्ति ज़रूरी है
जो ए हमारी दूरी है
बस ए एक मजबूरी है ।
वसन्त ऋतु अब आने को है
पतझड़ का मौसम अलविदा।
अंतराल मिलाप मे सुगंध सा
बस थोड़ा इंतज़ार ज़रूरी है ।
ये सुनसान उपवन बुला रहें
पर कलियों खिलें ये ज़रूरी है ।
जो ए हमारी दूरी है
बस ए एक मजबूरी है ।
हम तुम मिलेंगे गले लगेंगे
तुम राह देखना प्रतीक्षा में।
कुछ ही दिनों का सवाल है
इस अंतराल में न मलाल है।
समय ज़रा अब क्रूर है
पर इसपर भी चेहरा नूरी है ।
जो ए हमारी दूरी है
बस ए एक मजबूरी है ।
वक़्त ये भी अतीत होगा
मिलन हमारा अजीत होगा।
कंगन होंगे हाथों के, बेड़ियाँ
संयम मन का ज़रूरी है ।
ईश आशीष पर विश्वास है
उसकी प्रशंसा भूरी भूरी है ।
जो ए हमारी दूरी है
बस ए एक मजबूरी है ।