मंगलवार, 5 जनवरी 2021

" कैसी प्रीत लगाई ? "डाॅ.सारिका कालरा की कलम से कहानी...

  डाॅ.सारिका कालरा ( हिंदी विभाग) लेडी श्रीराम काॅलेज, (दिल्ली विश्वविद्यालय) की कलम से कहानी...


कैसी प्रीत लगाई ?

         आज मंगतराम की बेटी सत्या की बारात आने वाली है। बारात आने में अभी काफी देर है। बारात अपने गाँव से दिन के उजाले में निकलेगी तो भी दुल्हन के दरवाजे तक पहुंचते-पंहुचते अंधेरा हो ही जाएगा। सुबह से ही वाद्य यंत्रों की सुरीली धुन गाँव में गूंज रही है पूरी घाटी गुंजायमान हो रही है। आसपास के गाँवों में भी खबर हो गई है। उस घाटी में कुल मिलाकर पंद्रह गाँव हैं। किसी भी गाँव के किसी भी घर में क्या हो रहा है, ये सब पता लगाना आसान होता है। फलां गाँव के फलां काका, या फलां भैजी के घर की गतिविधियों को दूर से आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। ऐसे मौकों से घरों से उठने वाला धंुआ भी गतिविधि की सूचना दे देता है।

गाँव के लोग जल्दी-जल्दी खेतों में काम निपटा कर घर पंहुचने की जल्दी में हैं। क्या हुआ अगर आधी गोड़ाई कल हो जाएगी तो, सत्या की शादी रोज.-रोज. थोड़े न होने वाली है। सबसे अच्छी लड़की है सत्या- गाँव की, सारे गाँव की चहेती। बारहवीं तक पढ़ी, समझदार, हंसमुख, सुंदर और सबसे बड़ी बात यह कि बड़े-बुजुर्गों ने उसका किसी से कोई प्रेम संबंध भी नहीं सुना है। बैशाख और मंगसीर में जब शहरवाले पहाड़ों की तरफ टूट पड़ते हैं और गाँवों में, बाजारों में, मेलों में नए चेहरे दिखने शुरू हो जाते हैं, उन चेहरों की तरफ भी सत्या ने आज तक नहीं निहारा था। किसी बड़े के दिखने पर दूर से ही हाथों को अपने माथे तक उठाकर नमस्कार कर देती है-सत्या। गाँव की कोई बुजर्ग महिला पंदेरे पर दिख जाए तो झट से उसका कसेरा उठाकर उसके घर पर छोड़ आती है। गाँव के बच्चों की तो प्यारी दीदी है सत्या। अपने आंगन में उगे खुमानी के पेड़ से बच्चों को खुमानी चुराते देख कर भी कुछ नहीं कहती सत्या बल्कि अपनी माँजी और पिताजी के आने पर चुपचाप बच्चों को वहां से भाग जाने का इशारा कर देती है। ऐसी है सत्या, और उसकी शादी में टाइम से न पहुंचे तो अपना ही करम खराब होगा। आग लगाओ इस खेती को। वैसे भी कितना देती है अब? जिंदगी भर तो हल ही चलाना है और कुदाल ही पकड़ना है। अनाज, घास, गोबर, लकड़ी सिरों पर लादते-लादते जिंदगी बीत गई अपनी, ऐसे में आज के दिन भी काम में लगे रहें...लोग जल्दी-जल्दी ये सब बतियाते हुए गाँव की सीमा तक पहंुच चुके थे। आज उसी सत्या के भाग पर गाँव की बेटियों और बहुओें को ईष्र्या हो रही है कि सत्या भग्यान दिल्ली वाली हो जाएगी और घास, पात, पानी, लकड़ी के बोझ से उसे मुक्ति मिल जाएगी। सभी गाँव पहुंच कर शादी के माहौल में रम जाना चाहते हैं। आज उनको घर पहुंच कर खाना बनाने की चिंता नहीं है क्योंकि सत्या की शादी जो है।

पूरे गाँव में चर्चा है कि मंगतराम ने अपनी सत्या के लिए दिल्ली में रहने वाला लड़का पसंद किया है। लड़का किसी कंपनी में सुपरवाइजर है। वह अपने परिवार सहित दिल्ली में ही रहता है। उनकी गाँव में खेती-बाड़ी भी है पर घर और खेती बाड़ी को उसके चाचा का परिवार ही संभालता है। वैसे भी अब उत्तराखंड के गाँवों में बचा ही क्या है। पहले जैसी बात रह नहीं गई है। लोग जा रहे हैं धीरे-धीरे घर -बार छोड़कर। जब हल चलाने वाले हाथ ही नहीं बचे तो कैसे होगी खेती? सारी खेती-बाड़ी बंजर होती जा रही है। गाँवों से जवान नौकरी के कारण धीरे-धीरे पलायन कर रहे हैं। आखिर फौज में तो सारे भरती नहीं हो सकते न। स्कूल के लड़के भी अब कच्ची पीने लगे हैं, स्कूल पास करते ही आवारागर्दी शुरू कर देते हैं। ऐसे माहौल में कौन माँ-बाप अपने लड़कांे को गाँव में रखे। माँ-बाप लड़कों के बारहवीं पास करते ही ठेल देते हैं शहरों की तरफ। उनके थोड़ा कमाते ही खुद भी अपने बाप-दादाओं के घर पर ताला लगा कर, गाँव की देवी के सामने कसम खाकर कि हर साल गाँव आएंगें, मुंह फेर कर चले जाते हैं और गाँव के देवी-देवता रास्ता निहारते रहते हैं उन जाने वालों का।

सत्या का होने वाला पति और उसका परिवार एक हफ्ते पहले ही अपने गाँव आ गया है। गाँव की बेटी-ब्वारिया ंतो यह भी खुसर-फुसर कर रहीं है कि उन्होंने सत्या और उसके होने वाले पति को नदी के पास वाले मंदिर में बातचीत करते हुए देखा है। रूपा की दादी कल बसंती काकी से कह रही थी -- ‘‘अरे तो क्या हो गया। गई होगी मिलने अपने आदमी को । दो दिन की बात और है फिर हो ही जाएगा न उसका आदमी। कुछ लेकर आया होगा दिल्ली से अपनी होने वाली पत्नी के लिए। हमारी सत्या कोई ऐसी-वैसी लड़की थोड़ी न है जो तुम सब ऐसी बाते बना रही हो।’’ और रूपा की दादी खित से हंस दी थी। शायद रूपा की दादी को अपनी जवानी के दिन याद आ गए थे।

सत्या के घर में चहल-पहल है। औरतें कामों में व्यस्त है। मर्द इधर-उधर बैठकर हुक्का पीते हुए बतिया रहे हैं। पहाड़ के गाँवों में सारी कैटरिंग गाँव की औरतें और लड़कियां ही कर लेती हैं। सत्या को हल्दी स्नान करवाया जा रहा है। हल्दी में सनी हुई सत्या दिप-दिप दमक रही है, हल्दी लगाते हुए सभी रिश्ते की मामियां, चाचियां, सत्या की सहेलियां उसे छेड़ रही है पर सत्या चुप है। उसके माँ-पिताजी भी जब उसे हल्दी लगाने आए तो भी वह नहीं रोई, उसकी दादी उसके गले लगकर खूब रोई पर सत्या फिर भी नहीं रोई। अक्सर लड़कियां ऐसे भावुक मौकों पर रो पड़ती हैं पर सत्या थी कि उसके आंसू नहीं निकले।

उसके मामा हल्दी स्नान के बाद उसे गोद में उठा उसके कमरे में ले गए तो उसकी नजरें दो तीन बार उसकेे गाँव के ऊपर भरपूर गावँ की तरफ ऊपर उठी थी पर सत्या की नजरों को किसी ने नहीं पकड़ा उसकी नजरें फिर सारे समय झुकी ही रहीं। उसकी नजरों को उस दिन भी किसी ने नहीं पकड़ा जब उसने पहली बार भरपूर गाँव के कैलाश को नदी में मछली पकड़ते हुए देखा था। नदी उसके गाँव से होकर जाती था। भरपूर गाँव ऊपर पहाड़ी पर था वहाँ के लोग भी उसी नदी तक आते थे और अक्सर दोनों गाँव वाले आपस में मिलते जुलते रहते थे। उस दिन कैलाश ने ही उससे पूछा था --‘ तुम सत्या हो न ?’

एक अजनबी लड़के से अपना नाम सुनकर सत्या घबराई थी पर घबराहट उसे इस बात की ज्यादा थी कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है।

‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो?’ उसने पूछा था।

‘मेरे चाचा की लड़की रीमा तुम्हारी क्लास में है न उसी ने बताया था। उसी ने मुझे कई बार यहाँ से आते-जाते बताया था कि यह उसकी सहेली सत्या का खेत है और तुम उसी खेत में खड़ी हो और उसने तुम्हारी कद, काठी, रूप-रंग भी मुझे बताया था। इसीलिए पूछ बैठा था। सत्या ही हो न?’--कैलाश ऐसे खुश होकर बोला जैसे परीक्षा में पास हो गया हो।

सत्या आस-पास देखती हुई और थोड़ा खुश होते हुए बोली थी- ‘अच्छा तो तुम रीमा के भैजी हो’ अक्सर तीन चार लड़कों का झुंड ही मछली पकड़ने निकलता था नदी में पर आज कैलाश अकेला ही था। सत्या भी धान की गुड़ाई के लिए अकेली ही आई थी। उसकी माँ ने पीछे से आवाज देते हुए कहा था कि नदी वाले उस खेत पर अकेले मत जाना, अकेले भूत का डर रहता है पर वह माँ की बात अनसुनी कर अकेले ही चली आई थी। संयोग से उस दिन उन पलों में उस समय कैलाश और सत्या के अलावा वहाँ कोई नहीं था और उन पलों में उन दोनों के बीच इतनी बातें हो चुकी थीं कि दोनों दोबारा मिलकर उन बातों के सिलसिले को और आगे बढ़ाना चाहते थे। कैलाश के पूछने पर कि ‘फिर मिलोगी?’ सत्या ने सिर्फ कैलाश को देखा था, कहा कुछ नहीं था। बिना कोई जवाब दिए ही सत्या अपने गाँव के रास्ते पर बढ़ गई थी।

बारात गाँव में पहुंच चुकी थी। बैंड पर फिल्मी गानों की धुन बज रही थी। बैंड पर पहाड़ी धुनें बेजोड़ हैं पर फिर भी जब तक दो-चार फिल्मी गानें न बजें तब तक लोगों को भी अब मजा नहीं आता। दूल्हे की पूजा शुरू हो चुकी है। गाँव की महिलाएं और लड़कियां सजी-संवरी हैं और मंगलगान गा रही है। उन मंगलगीतों में दूल्हे और दूल्हे के परिवार और दोस्तों के लिए स्वागत कम और गालियां अधिक होती हैं और दूल्हे की तरफ वाले भी इन गालियों का गालियों में ही जवाब देते हैं। सत्या के दूल्हे के दोस्त टाई लगा कर गाँव की लड़कियों को इम्प्रेस करने आए थे। गाँव की लड़कियां भी उन्हें अपने मेकअप से रिझाने की कोशिश में लगी थी। मंगतराम अपने जवांई को देखकर गर्व से फूले नहीं समा नहीं रहे थे। उनका चेहरा आज सुबह से ही सूरजमुखी की तरह खिला हुआ था जो सूरज ढलने के बाद भी नहीं मुरझाया था बल्कि अपनी दहलीज पर दिल्ली वाले दूल्हे को देखकर और खिल गया था।

सत्या मंडप में आई तो उसकी और दूल्हे की जोड़ी देखते ही बनती थी। जोड़ी तो कैलाश और सत्या की भी देखते ही बनती थी पर बनती तो दिखती। उस दिन धुमाकोट जाते समय टैक्सी में सत्या ने दूर से देखा था कि कैलाश जैसा ही लड़का अगले मोड़ पर दिखाई दे रहा है। टैक्सी के पास जाने पर देखा था कि कैलाश ही था। कैलाश के रोकने पर टैक्सी रूक गई थी। हालाँकि टैक्सी पूरी भरी हुई थी पर फिर भी लड़के लटक कर ही जाते हैं यह सोचकर टैक्सीवाले ने टैक्सी रोक ली थी। सत्या टैक्सी में अपनी माँ के साथ थी। सत्या कैलाश को देखकर माँ के सामने अनजान बनी रही। रास्ते में एक सवारी उतर चुकी थी, कैलाश सत्या के सामने वाली सीट पर बैठ चुका था। सत्या की माँ ने ही बातचीत शुरू की थी। कैलाश को अपने पड़ोसी गाँव का जानकर सत्या की माँ को बहुत खुशी हुई थी लेकिन सत्या को अपनी माँ की यह बात बुरी तरह चुभ गई थी जब उसने कहा था-‘भैजी को बोल आते समय हमारे लिए सीट रोक कर रखे।’ माँ भी तो सीधे कैलाश से कह सकती थी न- सत्या ने सोचा। पर शायद माँ को लगा होगा कि टैक्सी की आवाज में कैलाश को सुनाई न दे। सत्या ने माँ के कहने पर कैलाश को नहीं कहा तो माँ ने ही उसे आते समय सीट रोक लेने को कहा था। पूरे रास्ते भर दोनों एक - दूसरे को आमने-सामने बैठकर निहारते रहे थे। बात कुछ भी नहीं हुई थी। बातें उस दिन खूब हुई थीं जब दोनों एक दूसरे को मेले में मिले थे--खूब बातें, बहुत सारी बातें। अपनी सहेलियों से दूर सत्या न जाने कब कैलाश के साथ उस मेले में गायब हो गई थी और जब वापिस आई थी तो उसके पास खूब सारा सामान था -- चूड़ियां, बिंदी, रूमाल, फूंदनें और खाने के लिए जलेबी भी थी। उसकी सहेलियां उस सामान को छू-छूकर देखती रहीं और पूछती रहीं थीं कि किसने दी हैं। सत्या मुस्करा कर बोली थीं--दी है उसने, खुद ही मिल लेना उससे। फिर बाद में एक-एककर वह सबको ही कैलाश से मिलवा चुकी थी।

एक से एक पकवान आज मंगतराम ने अपनी बेटी की शादी में बनवाए थे। सत्या उसकी एकलौती बेटी जो थी आखिर कोई छोटी बात तो थी नहीं। मंगतराम फौज का रिटायर्ड फौजी जो ठहरा और अब एक सरकारी स्कूल में चपरासी थी। दो-दो जगह से आमदनी थी उसकी। विवाह की रस्मों के बाद लोग खाने पर टूट पड़े थे।

बारातियों की अच्छी खातिर हो रही थी। मंगतराम कोई कमी बारातियों के लिए रखना चाहता था इसलिए घूम-घूमकर एक-एक बाराती के पास जाकर हाथ जोड़कर पूछ रहा था कि कोई कमी तो नहीं है न जी। सत्या की सहेलियां सत्या को कमरे में घेर कर बैठी थी। वे सब दूल्हे की तारीफ कर रही थीं। फेरे सुबह होने थे इसलिए सुबह क्या पहनना है सब इस की बात ज्यादा कर रही थीं। सत्या ने कैलाश की चचेरी बहन रीमा को भी अपनी शादी में बुलाया था पर रीना आ नहीं पाई थी। उसे सत्या और कैलाश भैजी के पे्रम-प्रसंग की खबर थी वही दोनों के बीच बिचैलिए का काम करती थी। दोनों के बीच चिट्ठी का आदान-प्रदान, अगली बार कहां मिलना है? इसकी जानकारी देना , ये सब काम उसी के जिम्मे थे, पर सत्या की शादी की खबर सुनकर उसने यही खबर भिजवाई कि वह नहीं आ रही है, उसे उसी दिन किसी और शादी में जाना है। कैलाश से मिलने के बाद रीमा सत्या की पक्की सहेली बन गई थी पर आज उसकी शादी के दिन वह उसके पास नहीं थी। सभी कुछ था--बारात, रिश्तेदार, उसका होने वाला दूल्हा, चारों तरफ रौनक पर सत्या का मन आज बहुत उदास था। रीमा उसके पास होती तो शायद वह इतनी भी उदास नहीं होती।

इतना उदास सत्या का मन उस दिन भी नहीं था जिस दिन उसे पता चला कि अब कैलाश नौकरी के लिए अपने मामा के पास चंडीगढ़ चला जाएगा। उसे खुशी ही हुई थी। अंदर से वह भले ही बेचैन हो उठी थी पर एक परिपक्व प्रेमिका की तरह उसने कैलाश को उसके अच्छे भविष्य के लिए शुभकामनाएं ही दी थीं। अभी उन दोनों को मिले हुए केवल दो महीने ही तो हुए थे और सिर्फ इन दो महीनों में ही हमेशा साथ रहने की बातें उन दोनों के बीच होने लगी थी। बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा था उनका प्रेम, और अब इतनी बड़ी बात। उस दिन के बाद सत्या का किसी काम में नहीं लगा। अनमनी -सी होकर वह हर काम करती। पर आज की उदासी कुछ और ही थी आज वह सिर्फ कैलाश से ही नहीं बल्कि अपनी मांजी, पिताजी, नाते-रिश्तेदार, सहेलियां, अपना गाँव सबको छोड़कर एक अनजान जगह , अनजान परिवार में जा रही थी। वैसे तो लगभग प्रेम कहानियों का अंत इससी तरह होता है पर जो कुछेक खुशनसीब होते हैं उनके प्रेम का भविष्य शायद कुछ और ही होता है।

सत्या और कैलाश का पे्रम केवल दो महीनों का ही था जो परवान चढ़ने से पहले ही समाप्त हो रहा था। पर कोई कैलाश से पूछे या फिर सत्या से क्या सचमुच यही बात थी? नहीं। सत्या के मन में अब भी कैलाश था पर सत्या के मन की खबर से अनजान सत्या के माता-पिता उसका विवाह तय कर चुके थे। जिस दिन उसे लड़का देखने आया वह चुपचाप मांजी के बुलाने पर लड़का और उसके परिवार के सामने जाकर खड़ी हो गई थी फिर तुरंत ही अंदर भी चली गई थी। मांजी-पिताजी न सोचा शायद शरमा रही है और सत्या की शादी की बात पक्की हो गई। सत्या ने अपना मन नहीं खोला। वह सोचती कि शायद कैलाश को रीमा ने बताया होगा कि उसकी बात पक्की हो गई है पर बताने से अब होने भी क्या वाला था? वह बार-बार ऊपर भरपूर गाँव की तरफ देखती शायद कैलाश वहां से आत दिख जाए पर वह नहीं आया। वह पहले की तरह सामान्य होने की कोशिश करने लगी।

आज बारात सत्या के आंगन में बैठी थी। विवाह की सारी रस्में हो चुकी थीं बस अब विदाई होनी बाकी रह गई थी। सत्या की दादी, मांजी, उसकी सहेलियां बहुत भावुक हो रही थीं। सब एक एककर उससे चिपक कर रो रही थीं। पर सत्या का रूदन किसी को सुनाई नहीं दे रहा था। सभी हैरान हो रहे थे कि सत्या क्यों नहीं रो रही है। ऐसे मौकों पर तो दुल्हनंे रो-रोकर बेहाल हो जाती हैं, उनकी सिसकियां थमती ही नहीं, दूर घाटी में बसे गाँवों में भी पता चला जाता है कि फलां गाँव से दुल्हन विदा हो रही है। दुल्हन के रोने की आवाज सुनते ही दूर अपने गाँवों के खेतों में काम करती महिलाएं अपनी-अपनी विदाई याद कर भावुक हो उठती हैं। रोती हुई दुल्हन को जबरदस्ती पकड़कर गाड़ी में बिठाना पड़ता है उनके तो कदम ही नहीं उठते अपने ससुराल की तरफ और सत्या है कि आज के दिन उसकी आँखों में आँसू तक नहीं हैं। ऐसी कठोर दिल तो नहीं थी सत्या--सभी यही सोच रहे हैं। सत्या तो दूसरे को रोता देखकर खुद भी रो पड़ने वालों में से थी। अब सब उसकी विदाई से नहीं बल्कि उसके न रोने से ज्यादा परेशान थे। उसकी मांजी ने बहुत भावुक होकर उससे कई बातें कहीं, वह सुनकर सुनने वाले रो पड़े पर सत्या फिर भी नहीं रोई। हाँ उसकी नजरें बार बार ऊपर भरपूर गाँव की तरफ उठती कि शायद कोई उसकी विदाई को देख रहा हो! शायद कैलाश...पर वहाँ कोई नहीं था। जैसा भरपूर गाँव रोज उसके घर से दिखाई देता है वैसा ही आज भी सत्या को दिख रहा था।

बारात जा चुकी थी। लोग सत्या को विदा करने बारात के साथ दूर तक गए फिर गाँव की तरफ लौट पड़े। घर के काम उनका इंतजार कर रहे थे वैसे भी दो दिन से खेत पर जाना नहीं हुआ। घास के लिए नहीं जा पाए, कोठरियों में बंधी गाए, भैंसे रंभा रही होंगी। हो गई शादी सत्या की। सभी उसके न रोने का ही जिक्र कर रहे थे- ‘‘कैसी पत्थर दिल वाली है सत्या, अपनी विदाई पर भी नहीं रोई, उसकी मांजी-पिताजी ,दादी का बुरा हाल था रो-रोकर। उनको देखकर भी नहीं रोई। अरे भई अब दिल्ली वाली जो हो गई है। सोच रही होगी दो दिन बाद तो शहर ही चले जाना है, इन लोगों के लिए क्या रोना? आजकल की लड़कियां भी न!!’’

लोगों ने गाँव से देखा-सत्या की बारात नदी पार कर अब पहाड़ी चढ़ रही थी। मोटर रोड़ काफी ऊपर है। अभी काफी चलना है। बेचारी सत्या को भी चढ़ाई चढ़नी है। पर वह तो खुश है शायद!! उसके लिए आज चढ़ाई कोई मायने नहीं रखती। दूर से बाराती रेंगते हुए लग रहे थे। पीले रंग और लाल रंग में दुल्हा-दुल्हन को आसानी से पहचाना जा सकता था।