रविवार, 22 मार्च 2020

हिमालयी साहित्य खजाना श्रृंखला के अंतर्गत प्रो. वीरेन्द्र सिंह नेगी की कलम से कहानी...

हिमालयी साहित्य खजाना श्रृंखला के अंतर्गत प्रो.वीरेन्द्र सिंह नेगी की कलम से कहानी...


"सफर खत्म हो गया"


      उस दिन बारा लाचा-ला पर सफर में बर्फ से भरे पहाड़ को देखकर खुद को धरती के स्वर्ग का आनंद लेते हूए खो गई। मैंने सड़क से ऊपर बाएं हाथ की तरफ का ऊंचा पहाड़ और उस पर चढ़कर दोनों हाथ उठाकर आसमान छूने का ख्वाब पूरा किया। पर मेरे सभी साथी जो दिल्ली-मनाली-केलंग-लेह बस रूट में दोस्त बन गए थे मुझे छोड़ कर आगे निकल गए। घर वालों के मना करने के बाबजूद अकेले साहसिक यात्रा करने की मेरी  ज़िद चौथे दिन ही हवा होने लगी थी। पहाड़ों पर जमी बर्फ मेरे चेहरे से होते हुए दिल को जमाने लगे लगी थी। घड़ी में देखा तो डायल 6:30 बजे दिखा रहा था। जेब में पर्स को छोड़कर बाकी सब सामान बस में ही रह गया था। 


मैं धीरे-धीरे सड़क के रास्ते आगे बढ़ने लगी बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखती शायद कोई वाहन आ रहा हो। आसमान पीला पड़ने लगा और दोनों ओर की पहाड़ियां सुनहरी धूप से रंगने लगी। हवा की आवाज धीरे धीरे कम होने लगी। पहाड़ी सड़क पर नीचे उतरते हुए हवा की ठंडक बढ़ने लगी थी।


पहाड़ के ढलान से नीचे उतर थी मैं और ठंडी होती हवा एक दूसरे के साथी बन गए। सुना है सर-चु कुछ दूरी पर है। बस में बैठे हुए लोगों को बात करते सुना था की एक डेढ़ घंटा दूर। 



अब मैंने पीछे मुड़ कर देखना बंद कर दिया और ठंडी होती हवा के साथ साथ सड़क पर चलने लगी। पैरों की चाप की आवाज, मोड़ पर मुड़ते स्याह अंधेरे, सड़क के किनारे चमकते मील के पत्थर, और शरीर के अंदर की भीनी पसीने की महक के साथ शुरू हुआ गुनगुनाते हुए चलने का यह सफर।


एक बात और कि मुझे थकान दूर दूर तक नहीं थी। 4000 मीटर मुझे हिमालयी पहाड़, रात का समय और सर-चु  तक पंहुचने की आस में बढ़ते कदम।


करीब 11:15 बजे आधी रात से ठीक पहले एक और मील का पत्थर बता रहा है सर-चु 1 किमी.। घर से निकलने से पहले किए लिटरेचर सर्वे में पढ़ा था सर-चु का ट्रांजिट कैंप यात्रियों के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं रखता है। मैं थोड़ी हिम्मत और थोड़ी उम्मीद बटोर कर तेज कदमों से आगे बढ़ने लगी। मुझे यह 20-21 किलोमीटर का पैदल सफर खत्म होता लगने लगा था। एकांतप्रिय, अंतर्मुखी और अक्सर खामोश रहने वाली मैं बेफिक्र सड़क के बीचो-बीच दाएं बाएं मनमर्जी से चलते चलते अब यह बात सोच कर विचलित होने लगी की कैसे अपने रहने और खाने का बंदोबस्त करूंगी? इतनी रात को कौन मिलेगा? इतनी देर अकेले चलते चलते अब किसी से बातचीत का मन नहीं। 


तभी मुझे पीछे से आते प्रकाश की अनुभूति हुई, मेरी छाया मुझसे आगे बढ़ने लगी मैंने अपनी चलने की स्पीड धीमी की और सड़क के एक किनारे चलने लगी।


घंटों के मेरे एकांत को चीरता यह प्रकाश मेरे पास आकर ठहर गया। घंटों तक पैदल सफर में मेरा साथ दे रही ठंडी हवा न जाने कहां मुड़ गई। एक अकेला सफर, लंबा सफर, आसमान तक पसरे पहाड़ों की घाटी पर चलते चलते घंटों लंबा मीलों दूर का सफर ठहर सा गया।


"आओ मैं आगे तक छोड़ दूंगा" मैंने पीछे मुड़ कर देखा, बाईक सवार मुझे निमंत्रण दे रहा है।


अपनी खामोशी को कायम रखते हुए मैं बिना कुछ नहीं बाइक पर पीछे बैठ गई। दो मिनट बाद ही सर-चु पंहुच गए। बहुत देर में सर-चु आया।


"मैं पांग तक जा रहा हुं, और तुम?


मैं खामोश रहती पर कहना ही पड़ा "मुझे पांग तक छोड़ दीजिए"। 


उसने बाईक आगे बढ़ाई, मैंने देखा कि मेरी बस खुले आसमान के नीचे बड़े से मैदान खड़ी है। सोचा अपना बैग ले लूं, पर इस सफर में एकांत, खामोशी और अब इस बाईक सवार का साथ। मैं और खलल नहीं चाहती।


"तुम अकेले कहां से आ रही हो"? 
मैंने कहा "बारा लाचा से"


बाईक सवार दूर तक फैली सीधी सपाट सड़क पर अपनी स्पीड बढ़ाता हुआ हवा को चीरता हुआ आगे बढ़ने लगा। मैंने बेझिझक उसे कस कर उसे पकड़ लिया। उसके कंधे पर अपना गाल रख कर जमीन पर पसरी चांदनी को निहारने लगी।


जीवन में इतना रोमांच, इतनी शांति, इतना विश्वास, इतनी रात और इतना पास मैं कभी किसी के नहीं गई थी।


"यहां का गाता लूप्स स्टार्ट होते हैं।" लगभग आधे घंटे की ड्राइविंग के बाद रफ्तार धीमी करते हुए उसने कहा। 


"यहां रुकें क्या"? मैंने कहा।
उसने शायद सुना नहीं या सुनकर अनसुना कर दिया। वह बाइक आगे बढ़ाते रहा। 


"तुम्हें नींद आ रही है क्या?" पहली बार उसकी बात में अपनापन सा लगा। 


मैंने कहा "नहीं"।
"यह सब कुछ कितना सुंदर है, पता है मैंने कभी नहीं सोचा था इतनी सुंदर रात का सफर कभी जीवन में आएगा।"  मैं बातचीत में खुलने लगी।


"देखना कितने मोड़ आते हैं हर मोड़ अपन को नई ऊंचाई पर ले जाएंगा।" उसने कहा। "अपन और जाएंगा" सुन कर मैं मन ही मन मुस्कुरा दी। मैंने उसे और कस कर पकड़ा और चेहरा उपर उठा कर ठुड्ढी उसके कानों के पास ले गई।


मैं उसे और सुनना चाहती थी, वह मुझे अच्छा लगने लगा, मेरे भीतर उसे देखने की इच्छा जागने लगी। हेलमेट के अंदर उसकी सांस को मैं अपनी सांसों से छूने की कोशिश करने लगी। वह मेरी भावनाओं से बेखबर बाइक चलाता रहा। मुझे अच्छा लग रहा था यह सब। एक अनजान साथी के साथ बेफिक्र, सारी दुनिया से दूर, ठंडे और चमकीली पहाड़ी सड़क का सफर।


"आगे अभी दो बड़े ऊंचे पास आएंगे। नकी ला और लाचुंग ला, देखना ऐसे लगेगा अपन आसमान पर चल रहे हैं।" कुछ देर बाद उसने बताया।


मैंने सुना पर चुप रही। मैं उसे, पहाड़, सड़क, रात का बिछा सौन्दर्य और मेरे मन में गुदगुदाती भावनाओं को किसी तरह से छेड़ना नहीं चाहती थी।



उसकी बाइक पर बैठे हम दोनों रात के 1:00 बजे हिमालय की सबसे ऊंची पहाड़ की सबसे ऊंची सड़क को पार कर रहे हैं। हमारी बाइक नकी ला पार करते हुए लाचुंग ला से होते हुए ढलान पर उतरने लगी। 16616 फीट की उंचाई पर मैंने खुद को रोमांचित महसूस करते हुए फिर से उसे जोर से कसकर पकड़ लिया और मन ही मन कहा "कहां से आए तुम? कौन हो मेरी खुशी के पोस्टमैन, आई लव यू"।


मेरी भावनाओं, मेरे रोमांच और खुशी से बेखबर वह बाइक चलाते हुए बढ़ते जा रहा था।


उसने बाईक की रफ्तार धीमी करते हुए सड़क से नीचे पहाड़ के किनारे मैदान वर्ग उतरना शुरू किया। हम 4-5 बड़े-बड़े टेंट हाउस से बना ट्रांसिट कैंप पांग पंहुच गए। 
"हम पहुंच गए" उसने बताया।
"उतरूं क्या" मैंने अपनी पकड़ ढीली करते हुए कहा।


उसके जवाब का इंतजार किए बिना मैं बाइक से उतर गई। उसने बाईक खड़ी की और एक टैंट की ओर मुझे चलने का इशारा कर आगे बढ़ने लगा। 


"आओ अंदर वाले कमरे में किसी एक बिस्तर पर सो जाओ।"


"मैं बाहर के कमरे में रहूंगा।"
मेरे जवाब का इंतजार किए बिना वह जल्दी-जल्दी सब बोल गया।


मैं अंदर चली गई, उसके हेलमेट उतारने का इंतजार किए बिना। उसका चेहरा देखे बिना मैं उसे पसंद करने लगी थी। अब उसे देखने का सोच मन में एक अज्ञात सा डर, एक अजीब सी घबराहट और  खिन्नता मुझ पर छाने लगी। बाइक का सफर खत्म होने से मैं अस्थिर सा महसूस कर रही थी। अचानक अपने पास  से कुछ खिसकने जैसा लगने लगा था।


रात के 2:00 बज रहे थे। आस पास कोई नहीं। पिछले 12 घंटे से जिंदगी से दूर एक और जिंदगी जी आई थी।ऊंचे पहाड़ पर अकेले चढ़कर दोनों हाथ उठाकर आसमान को छू कर, ठंडी हवा के साथ साथ पांच घंटे 20 किलोमीटर की पैदल यात्रा और फिर 2 घंटे अनजान साथी के साथ बाइक राइड। मेरे जीवन के बेहतरीन12 घंटे का हिसाब करते हुए मैं कब नींद की गोद में चली गई पता ही नहीं चला। 


गाड़ियों के हॉर्न से नींद खुली। उठकर टैंट से बाहर आई। बाइक सवार और बाइक दोनों गायब थे। हमारी दिल्ली-मनाली-केलंग-लेह वाली बस का ड्राइवर जोर जोर से बजा रहा था। मैंने टेंट की मालकिन को पूछा "कितने पैसे हुए"?
"भैय्या पैसे दे गया" उसने कहा।


बस में बैठे सभी पुराने साथी मुझे देख कर खुशी में चिल्ला रहे थे। मुझे अपना बैग और सीट मिल गई, पर बैठते हुए ऐसा लगा फिर से कुछ छूट गया। तब अहसास हुआ सर-चु से पांग का सफर खत्म हो गया था।