हिमालयी साहित्य खजाना श्रृंखला के अंतर्गत " भगवंती के भाग " प्रो.वीरेन्द्र सिंह नेगी की कलम से कहानी...
" भगवंती के भाग "
घट पार के खेतों में घाम सरक सरक कर पहाड़ चढ़ने लगा है। शाम ढलते ही हवा ठंडी होकर इन पहाड़ों से फिसल कर रौल्यों में जमा होने लगती। नदी के दोनों छैलों में पसरे खेतों में काम करती बेटी, ब्वारी, ब्यटुलि और सहेणा सब ठंडक का अहसास कर अपना काम धाम बटोर कर घर का रुख करने लगे। भगवंती खेतों से उतर कर रोज गांव के उस दोबाटे पर आकर ठहर जाती। एक रास्ता उसके मायके जाता और दूसरा अपने गांव को। हमेशा उसकी आंखें भर आती और गला भर आता। रुआंसी सी वो सबके पीछे पीछे सिर पर अपनी फांचि-पोटली रखे चलती। गांव पहुंचते पहुंचते सुर्य के छिपने से हुआ अंधेरा उसके खुदेड भावों को ढक लेता। घर पंहुच कर आंगन के तीरे पानी की परात से अंजुली भर पानी से मुंह पर छींटे मार वह चेहरे पर मायके की याद के निशान भी धो लेती और गागर उठा कर धारे पर पानी भरने चल पड़ती। तब कहीं जाकर भगवंती क़ो समझ आता कि अब छूट गया है मां का गांव।
बड़े घर की बेटी को ससुराल में बड़ा प्यार, मान और सम्मान मिला। ननद और देवर उसके साथ देर तक बातें करते। खाने की थाली के साथ साथ काम काज भी बांटते। सास ससुर में भी खूब प्रेम था जो समय समय पर उस पर भी आशीर्वाद बन कर उमड़ता। पति रौबदार ठाकुर है नौकरी के साथ और गांव गैले में खूब सारा रौब रुतबा दोस्त यार। घर में दखल कम ही करता। भगवंती के भाग्य पर मैती तो संतुष्ट हैं ही, आस पड़ोस के लोग भी।
समय बीतता गया। ननद का विवाह हो गया। उसकी विदाई में गांव का सारा माहौल बहुत मार्मिक हो गया। सब को रोते और चुप कराने में वह अपने भाव पी गई। ससुर का देहांत हो गया। सास भी देवर का विवाह कर जिम्मेदारी निभा दुनिया से चल बसी। बड़ी बहु होने के कारण सारा काम उसके सिर पर पड़ने से उसकी खूब परीक्षा हुई। समय के इस हेर फेर में भगवंती के जीवन में तीन बच्चों ने कदम रखा।
बड़े भागो वाली भगवंती जीवन की नैया के थपेड़ों में जीवन की नैया के थपेड़ों में एक नई जिम्मेदारी में प्रवेश कर चुकी है। मात्र 8 वर्ष के वैवाहिक जीवन में बड़ी बहू से अब ताई जी की भूमिका में आ चुकी है। खोलदार व रिश्ते नातों के छोटे-मोटे झगड़े मनमुटाव और बंटवारे ताई जी के समक्ष आते ही सुलझ जाते। छोटे बच्चों को स्कूल भेजना, दवाई देना, किसी के मां बाप घर पर ना हो तो उन्हें खाना देना और सब की देखभाल और चिंता भगवंती ताई के हवाले हो गई। सास ने आखरी सांस लेते हुए भगवंती का हाथ पकड़कर कहा था छोटे को कभी दुखी मत करना और ननंद का कभी भी मायके आने पर तिरस्कार ना होने देना। भगवंती ने यह दो और मंत्र अपने जीवन में बांध लिए। पहला मंत्र मां बाप ने डोली में उठाते हुए कहा था कि कितना ही कष्ट हो अब तेरा घर तेरा ससुराल है। तू वहां की महारानी है। कभी भाइयों के पास दुखड़े लेकर मत आना। भगवंती जब कभी भावुक होती तो यह तीन मंत्र उसको याद आते हैं और फिर कभी उसके भाव बाहर प्रकट नहीं हो पाते। उसने भावों को पीना सीख लिया।
अचानक न जाने क्या हुआ। समय ने भगवंती से मुंह मोड़ लिया। जब उस दिन तार आया और उसके पति की गुजरने की खबर लाया। पति नौकरी पर चल बसा। उसकी दुनिया उजड़ गई। तीन बच्चे, भरी पूरी खेती और पहाड़ सी जिंदगी। भगवंती चारों और से अकेली हो गई। शहर से कंपनी वाले दो बक्से सामान और ₹35000 दे गए गए। कई महीनों तक सांत्वना देने वाले आते रहे। भगवंती का जीवन अपने इर्द-गिर्द सिमटने लगा। बचपन से ही उसने होनी से कभी कोई मांग और शिकायत नहीं की थी। आज भी उसका यह ढंग बदला नहीं। उसके साथ सब घटा भी ऐसे जैसे की उसे ही सब संभाल करनी हो। ऐसे में अचानक सामने आए दुखों को पीते पीते वह कभी भी इन दुखों को ठीक से महसूस भी नहीं कर सकी। समय तेजी से बीतने लगा। वह आसपास के घरों, गांवों व नाल में नई पीढ़ी के साथ खासकर पढ़ाई, शादी विवाहऔर छोटे-मोटे पारिवारिक झगड़ों के समाधान में सहयोग स्नेह की मूर्ति बनकर सामने आई। बेरहम वक्त निरंतर और निष्ठुर चला। गांव में फैली हैजा की बीमारी ने महीने भर के भीतर उसके दो बच्चों को लील लिया। 4 बरस की सबसे छोटी को सीने से लिपटा वह बदहवास सी जीने को मजबूर हो गयी। सब कुछ अच्छा तो चल रहा है फिर पेड़ पर पके फल सी जमीन पर गिरी उसकी जिंदगी चकनाचूर हो कर ऐसे कैसे बिखर गई।
भगवंती जीवन में कभी जी भर कर रो न सकी। उसकी आंखों का पानी बिना बहे सूख चला। उसकी बातें की खनक खो गई। विवाह के बाद वह कभी मायके नहीं गई। समय बीतने लगा। अब कभी-कभार ही लोग उससे मिलने आते। एक समय था की घर के आगे से गुजरने वाला हर कोई बिना रुके बिना बैठे बिना चा पिए वहां से नहीं निकलता। अब शाम में लगी। सब रौनक चली गई। पीठ पीछे लोग उसे बुढ़िया कह कर बुलाते। यह भी उसके लिए एक असहनीय संबोधन है। उसे जीवन बेहद ही नीरस, दिशाहीन और लक्ष्यहीन लगने लगा। उससे समझ नहीं आया कहां ले जाएगी ये जिंदगी।
उसके जीवन में छाया घना अंधेरा उससे निगलने को तैयार हो रहा है। अब वह चूल्हा एक वक्त ही जलाती है। नींद तो लगभग पहले ही खत्म हो गई थी अब भूख भी मरने लगी। उसकी खेती बाड़ी अब छूटने लगी। धारे से पानी भरकर लाना और रास्ते भर के घरों में हंसते खिलखिलाते परिवारों को देख उसका मन भर आता। उससे नहीं सूझता की विधाता ने उसके साथ यह क्या कर दिया। बहुत ही रे धीरे अपने पहले के दिनों में धंसती चली गई। अकेले में अपने सास-ससुर पति बच्चों के साथ समय गुजारने लगी। उसके मानसिक हालात असामान्य होने लगे। इस आभास में छोटी बेटी का ध्यान और देख रेख छूटने लगा। मायके से उसे देखने भाई आया और बेटी को साथ ले गया।
भगवंती मनोदशा अब इस सबसे हट चुकी है। विवाह के बाद से लेकर अपने जीवन पांच-छह वर्षों में सीमित हो गई। वह अक्सर देर तक घर के काम करती, खुद से बातें करती, अपने सब खेतों में जाने लगी। बंजर खेतों में खेती का काम देखने लगी। वह रात भर जागकर दरवाजे के बाहर छज्जे पर रात बिताने के बाद सुबह पानी भरने निकल जाती। फिर गांव की गलियों में फिरती।
लोग भगवंती को पागल कहने लगे। छोटे बच्चे उसे देखकर भागने लगे। कभी-कभी उस पर ढेले भी मारने लगे। बिगड़ी मानसिक दशा और खाने-पीने में नियम न होने से कुछ दिनों बाद भगवंती का शरीर जवाब देने लगा। कुछ साल पहले भरा पूरा घर अब उसके दरवाजे और छज्जे पर सिमट गया। भगवंती दिन-रात वहां बैठ कर अपने बीते दिनों के साथ जिंदगी के अंतिम दिन गुजार रहे है।