सोमवार, 11 मई 2020

"तीर्थ यात्रा" प्रो.वीरेन्द्र सिंह नेगी की कलम से कहानी...

हिमालयी साहित्य खजाना श्रृंखला के अंतर्गत "तीर्थ यात्रा" प्रो.वीरेन्द्र सिंह नेगी की कलम से कहानी...


"तीर्थ यात्रा"


       सारी आशंकाओं को निराधार साबित होते देख गोकुल ने गंगा बालू के तट पर लगे तंबू के आगे रखे मटके से पानी निकाल कर पिया। उसे अपने पीछे आने वाली आवाजों का शोर धीमा होता जान पड़ा। वह पास ही पड़े बेंच पर बैठकर सुस्ताने लगा। दूर नदी पार से मंदिर में आरती के स्वर और घंटियों की आवाज उसके कानों तक पहुंच रही थी। उसने आंखें बंद कर ली। अपना सारा ध्यान माथे से आंखों  के भीतर प्रवेश कराता हुए उसने जोर की सांस लेनी शुरू की। अब उसे केवल मंदिर की आरती और घंटियों की आवाज है सुनाई दे रही हैं। वह उनमें खो गया। उसकी स्मृति उसे पीछे ले गई। कैसे वह सबके साथ मां दुर्गा के आशिर्वाद से वह कलकत्ता से हरिद्वार गंगा माई के दर्शन करने आया है। यहां के परिवेश की पावन सुगंध और सुरीली संगीतमय दिनचर्या उसे वापस जाने से रोक रही है। वह और आगे चार धाम तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए मन बना चुका है। परिवारजनों से इस बात को लेकर उसकी बहस मनमुटाव का रूप ले चुकी है। आपसी संबंधों की स्थिति मारपीट तक आ पंहुची और वह सबसे अलग हो हरिद्वार स्टेशन से ही भाग आया। सबने उसे पागल घोषित कर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी है। सबसे बचता बचाता वह किसी तरह यहां पहुंचा। एक बार तो  उसे लगा कि पुलिस उसे पकड़ लेगी या हर जो आदमी दिखाई दे रहा है वह उसे ही ढूंढ रहा है या फिर सब उसे ही खोज रहे हैं।


"अरे भाई उठो, खाना लग चुका है" आवाज से उसकी तन्द्रा भंग हुई।


उसने देखा तम्बू के बगल में टेबल में खाने के पतीले, प्लेट और पीने के पानी सलीके से लगे हैं। कुछ लोग लाईन में लग कर खाना लेकर सामने लगी कुर्सियों पर बैठ कर बातें करते खा रहें हैं। उसने फिर से देखा कि आवाज कहां से आयी। अंदर से रोटियां लेकर आया लड़के ने उसकी और देख फिर से आवाज लगाई। सुनकर उसने इधर उधर देखा और विश्वास कर उठ कर मटके की तरफ बढा, पानी निकाल कर हाथ और मुंह धोकर खाने की तरफ बढ़ गया। खाना खाकर सब नंगे पैर ठंडी बालू पर टहलते हरि भजन गुनगुनाते रहे, वह भी भोजन से तृप्त हो बालू पर लेट गया। धीरे धीरे लोगों की आवाज मद्धम पड़ने लगी और दूर बहती गंगा मैया की कल कल धनी उसके कानों में साफ होती चली गई। दिनभर की मानसिक और शारीरिक पीड़ा से और थकान से वह जल्दी सो गया।


"तुझे इस कारोबार में पड़ने की क्या आवश्यकता है, पढ़े लिखे हो, कोई अच्छी नौकरी ढूंढो"। पिताजी ने कहा था।


" आपके इस कारोबार में मुझे भी कोई रूचि नहीं है।
इस बार परीक्षा के बाद काशी या हरिद्वार जाऊंगा, फिर भगवान शिव का आशीर्वाद लेकर स्कूल में पढ़ाने का काम देखूंगा।" उसने साफ कर दिया था।



पिताजी के कारोबार में दो बड़े भाई पहले ही अपने दिन काट रहे हैं। दोनों का परिवार और माता पिता और दो बहनों की जिम्मेदारी साथ थी। गोकुल के लिए वहां कोई अतिरिक्त काम नहीं था। वैसे गोकुल की भी कोई इच्छा कारोबार से जुड़ने की न थी। पर समय का चक्र ऐसा घूमा कि परीक्षा और काशी- हरिद्वार से पहले ही परिवार को कारोबार में जबरदस्त घाटा हुआ। सब कुछ बिक गया। कामकाज बाजार में किराए की दुकान में सिमट गया। समय के उलटफेर में पिताजी ने अपने कारोबार में वापसी के लिए पढ़े-लिखे गोकुल की संभावित योग्यता का सौदा कर शहर के प्रतिष्ठित सेठ की बेटी से विवाह की पेशकश की। नुकसान की मार और परिवार के दबाव में वह न चाहते हुए भी अपनी इच्छाओं को दबाकर विवाह बंधन में बंध गया।


बड़े सेठ के परिवार में संबंध और दान दहेज में मोटा पैसा मिलने से गोकुल के पिता भाईयों का कारोबार फिर से कलकत्ता में अपनी पकड़ बना गया। पर कुछ महीनों बाद ही घर में रहने की तंगी , धन दौलत की अकड़ और नव विवाहिता के नखरे व दबाव में गोकुल को अलग होना पड़ा। परिवार से ताल्लुक धीरे धीरे औपचारिक हो गए। यहां से गोकुल के जीवन में मोड़ आया। काशी और हरिद्वार का तीर्थ उसके मन के किसी कोने में दबा रह गया। उचित नौकरी के अभाव के साथ पत्नी के अत्यधिक हावी और प्रभावी व्यक्तित्व ने उसके जीवन में निराशा भर दी। वह  अपने बेहद नीरस जीवन में मां दुर्गा की पूजा अर्चना में डूबने लगा। पत्नी के साथ उसके संबंध खिन्न होने लगे। पढ़े लिखे लोग पारिवारिक झगडे में अक्सर पीछे हटते साबित होते हैं। गोकुल को अपने परिवार से अलग होने, इच्छित नौकरी न मिलने से और पत्नी के व्यवहार से सामंजस्य न बैठा सकने के कारण जीवन नीरस लगने लगा। 


एक दिन पत्नी ने बताया कि मायके से सभी लोग हरिद्वार ऋषिकेश जाना चाहते हैं। वे दोनों भी साथ चलेंगे, ऐसा भी उसने बताया। उससे इतना ही सूचनात्मक सलाह मशवरा कर तीर्थ यात्रा का कार्यक्रम बन गया। कलकत्ता से हरिद्वार रेल यात्रा में गोकुल बाकी सब से घुल-मिल न पाया। यह दूरी दिन ब दिन बढ़ती गई। होटल में भी उन लोगों के खाने पीने, घूमने, दर्शन और सैर सपाटे में गोकुल का व्यवहार में और आदतें उन सभी से अलग होने के कारण उनमें तनाव पैदा करने लगी। दो दिन में ही गोकुल को अहसास होने लगा कि वह उन सब में बेमेल सा है। उसने मौका पाकर पत्नी से बताया कि वह सब लोगों के साथ वापस नहीं जायेगा। कुछ दिन यहां बिता कर बाद में आएगा। इस बात को लेकर दोनों में विवाद बढ़ गया। मायके के सभी लोगों ने पत्नी के पक्ष  में साथ ही वापस चलने को कहा। स्टेशन जाने के दिन बात हाथापाई तक आ पंहुची। अंत में खूब झगड़ कर ट्रेन में बैठने के बाद भी गोकुल भाग गया।


"अरे भाई, जागो। आओ चाय पियो" कानों में आवाज पड़ते ही गोकुल झटके से उठ बैठा। रात वाले लड़के की ने चाय का गिलास उसके पास रख दिया और तम्बू में रूके लोगों की ओर बढ़ गया। गोकुल चाय का गिलास उठा कर मटके की ओर बढ़ा। पानी पी कर उसने बेंच पर बैठ चाय के घूंट भरे। 


"कब तक यहां रूकोगे" पीछे से आवाज आई। उसने मुड़ कर देखा तो एक लंबी घनी दाढ़ी वाला बाबा उसके पीछे खड़ा है।


"अभी तो कुछ सोचा नहीं " उसने उठते हुए जवाब दिया। 


"आगे और उपर जाना है क्या?" बाबा ने बात बढ़ाते हुए पूछा।


"आप कहां तक जाएंगे?" उसने प्रत्युत्तर में कहा। 


"जहां भोलेनाथ ले जाएं" कह कर बाबा चाय का खाली गिलास धोते हुए बोले।


"सामने उपर चढकर जो तंबू है वहां निवृत्त हो आओ।" चाय वाले लड़के की ने बताया। 
 बिना जवाब दिए गोकुल उस ओर बढ़ गया। वापस आकर उसने देखा लड़के ने जमीन पर दो आसन रखें हुए हैं। नाश्ते की प्लेट और पानी का गिलास साथ ही है। कुछ देर में बाबा भी पंहुच गया और गोकुल को अपने साथ बैठने को कहा। दोनों ने साथ नाश्ता किया। नाश्ता करने के बाद लड़के ने गोकुल को बताया कि बाबा देवप्रयाग जा रहे हैं। 



"तुम बाबा जी के साथ चले जाओ" लड़के ने कहा। 


कल शाम से लड़का बिना जान पहचान के बड़े अधिकार से गोकुल से बातें कर रहा था। पहली बार गोकुल को लगा कि लड़का उसकी व्यक्तिगत परिधि में अतिक्रमण कर रहा है। पर अपना कोई नियत कार्यक्रम और गंतव्य तय न होने के कारण उसने लड़के की बात को मूक सहमति दे दी।
तम्बू से बाबा के सामान को लेकर लड़का बाबा और गोकुल को छोड़ने सड़क तक आया और उन्हें बस में बैठा कर दोनों के पैर छुए।


हिमालय के बाबा के साथ वह निकल पड़ा तीर्थ यात्रा पर। कब बस ने मैदान छोड़ कर पहाड़ का रास्ता लिया और वे घुमावदार रास्तों से देवभूमि में प्रवेश कर गए। जब भी बस रुकती तो सभी चढ़ने व उतरने वाले लोग बड़ी श्रद्धा से बाबा के पैर छूने बढ़ते। बाबा के चेहरे का तेज बढ़ता जा रहा है और बाबा के विषय में गोकुल का कौतूहल।


देवप्रयाग पंहुचने पर बाबा अपनी सीट से उठे तो तीन लोग बाबा की ओर बढ़े। उन्होंने बाबा को श्रद्धापूर्वक नमन किया। गोकुल भी साथ में खड़ा हो गया उसने बाबा का सामान उठा लिया। नीचे उतरते ही एक जीप में सामान डाल कर वे पैदल ही सीढ़ियों से उतरने लगे। बाजार के बीच पतली गली से होते हुए झूला पुल पार कर कुछ और सीढ़ियां उतर कर वे सभी मां गंगा के अलकनंदा भागीरथी संगम खड़े हो गए। गोकुल यंत्र वत सा बाबा के साथ साथ चल रहा है। बाबा ने स्नान स्नान किया और उसे भी ऐसा करने को कहा गया। बाबा के साथ गोकुल को नए वस्त्र मौसम में ठंडक को देखते दिए गए। अब वे तेजी से मंदिर की परिक्रमा के बाद गाड़ी में लौट आए।


अब गाड़ी का सफर आगे बढ़ा। रास्ते में एक और जगह गाड़ी रूकी। बाबा के स्वागत के लिए कुछ लोग लाईन में लगे। उन सब ने बाबा के कुछ कपड़े, पैसे और पोटली भेंट की। बाबा ने पैसे गोकुल को थमाकर आगे की राह ली।


आगे एक मंदिर के प्रांगण में प्रवेश कर वे लोग मंदिर के पीछे तीन चार कमरों के धर्मशाला जैसे स्थान पर पंहुचे। गोकुल ने देखा कि बाबा रास्ते भर बातें बहुत कम करते हैं और चलते बहुत तेज तेज हैं। हाथ मुंह धो कर और अन्य कर्म से निवृत हो सभी को भोजन कराया गया। भोजन के उपरांत बाबा ने गोकुल से सारे पैसे रसोइए को देने को कहा। बिना गिने ही सारे पैसे उसके हाथ में थमा कर वे लोग तुरंत बाहर निकल कर गाड़ी में बैठ आगे बढ़ चले। पहाड़ की ऊंचाई बढ़ने के साथ-साथ शाम ढलने और मौसम में ठंडक होने लगी। कभी-कभी बाहर देखते हुए गोकुल रास्ते में एक आध झपकी ले लेता। आंख खुलने पर उसने देखा कि सुनसान सड़क पर अंधेरे में गाड़ी चल रही है। 
"हरि ओम् नमो शिवाय" अगली सीट पर बैठे  बाबा का स्वर गूंजा।  
"नमः शिवाय, नमः शिवाय" एक स्वर में सभी बोल उठे। 


गाड़ी फिर से रुक गई। सभी लोगों ने अपने अपने सामान जी पोटलियां उठा ली, गोकुल में बाबा का स मान दोनों कंधों पर टांग लिया। घुप्प अंधेरे में वे सभी सड़क से बांई ओर उपर  पैदल चल पड़े।



गोकुल मंत्रमुग्ध सा बिना थके, बिना कुछ बोले, बिना कुछ पूछे बाबा का अनुचर बन साथ साथ चलता रहा। पहाड़ की चढ़ाई पर लगभग 2 घंटे से अधिक समय तक टेढ़े मेढ़े, उबड़-खाबड़, जंगली रास्ते पर चलने के बाद वे सभी एक खुले इलाके में पहुंच गए। आसमान में चांद निकल आया। चांद की चांदनी पूरे इलाके में बिखरी लग रही है। वे जल्दी जल्दी चल कर वहां टार्च और लालटेन लिए  उनकी प्रतीक्षा करते लोगों के पास पहुंच गए। गोकुल को लगा कि माहौल कुछ गंभीर है। सभी ने उनके हाथ से सामान ले लिया पर बाबा के सामान को लिए वह उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। एक बड़ा सा घर और उसके सामने सुंदर खुले प्रांगण में पहुंचकर वे सब रुके। वहां प्रांगण की दीवार पर दरी और कंबल बिछा कर उनके आसन तैयार थे। उनके बैठते ही गरम पानी चाय और गरमा गरम पकोड़े उनके स्वागत में परोसे  गए। एकाएक लोगों की भीड़ इकट्ठे होने लगी। बाबा ने गोकुल की ओर देखा। यहां भी लोग बाबा के चरणों की धूलि लेकर पैसे, कपड़े और अपने अपने हिसाब से उपहार भेंट करने लगे। लगभग आधे घंटे तक यह सब चलने के बाद उन्हें भीतर के कमरे में ले जाया गया। वहां हल्की लौ का दीपक जल रहा है। गोकुल ने देखा कि कमरे में पहले से ही एक बड़ी-बड़ी सफेद जटा और घनी सफेद दाढ़ी वाला बाबा समाधि में लीन हैं। बाबा नहीं उन बाबा के आगे साष्टांग भूमि पर लेट कर प्रणाम किया। काफी देर तक वह इसी मुद्रा में लेटे रहे। गोकुल अन्य लोगों के साथ कमरे की दीवार से पीठ लगाकर उकड़ू बैठ गया। अचानक किसी के सिसकने की आवाज आई। उन्होंने देखा कि समाधिस्थ बाबा सुबक सुबक रो रहे हैं।  उन्होंने बाबा को अपनी ओर खींच कर बैठाया और उन्हें अपने सीने से लगा कर जोर जोर से रोने लगी। दोनों बाबा भाव विह्वल होकर एक दूसरे से लिपटकर रोने लगे। इस दैविक मिलाप को देख कर सब ओर एक खामोशी पसर गई। वह समझ गया कि हों न हों यह बाबा के गुरु या पिता या पितामह होंगे। 


भावनाओं का एक तूफान सा आया और थम गया। बाहर लोगों की आवाजें भी धीरे धीरे कम होने लगी। हवा थम सी गई। कमरे में जल रही दीपक की रोशनी अचानक तेज हो गई। उसे एहसास हुआ कि दीवार के साथ बैठे उसके साथी वहां नहीं हैं। कमरे में अचानक गर्मी बढ़ गई। उकडू  बैठे थक कर गोकुल नीचे बैठ गया। उसने देखा कि कमरे का प्रकाश तीव्र होता जा रहा है। बाबा भी समाधि मुद्रा में बैठ गये। स्थिति बिल्कुल उलट हो गई, सफेद जटा वाले बाबा निढाल हो कर बाबा की गोद में लुढ़क गये। गोकुल के लिए यह विस्मयकारी क्षण था, उसे लगा वह चलचित्र देख रहा है। हैरानी से उसके रोंगटे खड़े हो गए। वह उठकर उन दोनों की ओर बढ़ने लगा। उसने सहारा देकर सफेद जटाओं वाले बाबा को उठाया। उसके आश्चर्य की सीमा न रही, बाबा एक सूखी लकड़ी की भांति हल्के थे। एकाएक गोकुल के बाबा ने आंखें खोली और हमेशा की तरह शांत भाव चेहरे पर ला उठने लगे। घुटने के बल बैठा गोकुल फूल से कोमल वृद्ध शरीर को संभाल कर बैठा अपने बाबा की ओर देखता रहा।


"वे चले गए, उठो अब बाहर चलें"  बाबा ने कहा। 
गोकुल ने देखा उसके हाथ खाली हैं। सफेद जटा वाले बाबा अंतर्ध्यान हो गए हैं घर। वह बाबा के पीछे पीछे कमरे से बाहर निकल आया। उनका सामान वहीं प्रांगण की दीवार पर रखा हुआ है। लोग वहां से जा चुके हैं। चांद और ऊपर चढ़ आया है। कमरे के भीतर की गर्मी से चांदनी रात ठंडक में उसे बड़ी राहत मिली। बाबा दिवार पर बिछे आसान पर लेट गये। वह भी थोड़ी दूरी पर आसन लगा कंबल बिछाकर लेट गयाया। 


सुबह की तेज रोशनी, चमकदार नीले आसमान में रूई की तरह उड़ते बादल और मंद मंद बहती ठंडी पवन के झोंके से गोकुल की आंख खुली। अपने बालों पर उंगलियां फिराते हुए आंखें चारों तरफ दौड़ाते हुए उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। न ही  वहां कोई मकान था, न प्रांगण और न दीवार । उसने चेहरे पर हाथ फेरा तो पाया कि उसके केश व दाढ़ी मूंछ उग आए हैं। उसने खुद को एक बड़ी चट्टान पर सामान के साथ लेटे पाया। बाबा सामने बहते झरने में स्नान कर रहे हैं। उनके साथ के लोग भी नहीं हैं। रात को लोगों का चढाया चढ़ावा व भेंट का सामान वहीं रखा है।



"नित्यकर्म से निवृत्त हो जाओ नाथ, सूर्यास्त तक महादेव के धाम पंहुचना है " बाबा ने उसे देखते ही कहा।


"जी" गोकुल नाम को भूल चुके नाथ ने उत्तर दिया।


नाथ ने सारे वस्त्र, उपहार व सामान एकत्र किए। दिन चढ़ आया। सामने के रास्ते से बहुत से लोग आते जाते मिले। भीड़ में बीमार, गरीब, भूखे और जरूरतमंद लोगों को बाबा को मिली सौगातें बांटने में नाथ का आनंद ही उसका कर्म बन गया। बाबा की महिमा इतनी विलक्षण है कि सुबह से शाम तक वह जितना बांटता, बाबा के श्रद्धालुओं से उससे भी अधिक फिर एकत्रित हो जाता। नाथ अब अन्नपूर्णा मां की परछाई सा बाबा के आशिर्वाद बांटने को ही जीवन बना बैठा है।


मन में नये जीवन का भावऔर सार लिए वह बाबा के साथ निकल पड़ा आगे की यात्रा पर ।