मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

बिहार विधान चुनाव : तो क्या जो महाराष्ट्र में हुआ, वही बिहार चुनाव में भी होगा ?

संवाददाता : पटना बिहार


      बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) अब एनडीए के साथ मिलकर विधान चुनाव नहीं लड़ेगी। इस उठापटक के कारण सूबे में होने जा रहा विधानसभा चुनाव और भी रोचक हो गया है। सितंबर के अंतिम सप्ताह तक कई ओपिनियल पोल एनडीए को स्पष्ट बहुमत देने और महागठबंधन को राज्य की 243 सीटों में से 100 सीटें मिलने की भविष्यवाणी करते दिखें। लेकिन लोजपा के एनडीए से बाहर होने के बाद अब सारा समीकरण बदलता नजर आ रहा है।


बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार महागठबंधन में शामिल थे, लेकिन 2017 में वह महागठबंधन को छोड़कर एनडीए में आ गए। आधिकारिक तौर पर तो नीतीश कुमार एनडीए के मुख्यमंत्री उम्मीदवार हैं, लेकिन लोजपा के एनडीए से बाहर निकलने से अब माना जा रहा है कि भाजपा को यदि जेडीयू से अधिक सीटें मिलती हैं तो वह अपना सीएम मैदान में उतार सकती है। यदि ऐसा हुआ तो लोजपा भाजपा की मदद कर सकती है, क्योंकि पार्टी अध्यक्ष चिराग पासवान ने साफ कहा है कि बिहार को अब नीतीश कुमार के विकल्प की जरूरत है, जो पिछले 15 वर्षों से सीएम हैं।लोजपा ने राज्य में 2005 में हुए विधानसभा चुनाव अकेले लड़ा था। उस वर्ष फरवरी में हुए चुनावों में पार्टी ने 178 सीटों पर चुनाव लड़ा और 29 में जीत दर्ज की, जिसमें 12.63% वोट मिले। वहीं अक्टूबर के चुनावों में, लोजपा ने पार्टी ने 203 सीटों पर चुनाव लड़ा और 10 में जीत हासिल की, 11.1% मत प्राप्त किए। उस समय से लोजपा का वोट शेयर घट रहा है।भाजपा का मानना ​​है कि कई उन सीटों पर जहां सर्वणों का वर्चस्व है, वहां उसका (भाजपा का) वोट जदयू के उम्मीदवारों की जीत के लिए होना चाहिए।



2010 का विधानसभा चुनाव भाजपा और जदयू ने एक साथ लड़ा। जदयू ने 141 सीटों में से 115 पर जीत दर्ज की और उसका वोटिंग प्रतिशत 22.61% था। वहीं 2015 में जदयू जब महागठबंधन में शामिल थी, उसने 101 सीटों पर चुनाव लड़ा और 71 सीटों पर जीत हासिल की। इन दोनों विधानसभा चुनावों को देखकर पता चलता है कि जदयू ने एनडीए में बेहतर प्रदर्शन किया है, क्योंकि भाजपा के वोट ट्रांसफर हो गए।जदयू के खिलाफ चुनाव लड़ने का लोजपा का उद्देश्य स्पष्ट रूप से भाजपा के वोटों के हस्तांतरण को रोकना है। जदयू के सभी 122 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने के एलजेपी के फैसले को वोट काटने की कवायद के रूप में अधिक देखा जा रहा है, जिसमें भाजपा के सहानुभूतिवादी लोग जदयू के बजाय, लोजपा को चुनना पसंद करेंगे। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इन सीटों पर लोजपा के उम्मीदवार कौन होंगे।यदि ये योजना काम करती है, तो भाजपा जदयू की तुलना में अधिक सीटें जीतकर किंग मेकर के रूप में उभर सकती है। बिहार की राजनीति को समझने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि यदि ऐसा हुआ तो बिहार के भाजपा नेताओं का लंबे समय से देखे जाने वाला सपना (बिहार में भाजपा का मुख्यमंत्री) पूरा हो जाएगा।


राजनीतिक जानकारों का कहना है कि बिहार में एनडीए से लोजपा का बाहर जाना एक सोची समझी राजनीति का हिस्सा है, इसका असली मकसद नीतीश कुमार को हासिये पर लाना है। उनका कहना है कि जिस तरह से चिराग पासवान ने एनडीए से बाहर जाने का ऐलान किया है, कुछ मायनों में नीतीश कुमार को हाशिए पर रखने के लिए एक प्रायोजित एजेंडा जैसा लगता है। यह गेम प्लान है, जो जदयू को नुकसान पहुंचाएगा, जिससे भाजपा को अपनी स्थिति को और मजबूत करने का मौका मिलेगा। एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि लोजपा भाजपा के साथ मिलकर काम कर रही है। उन्होंने कहा कि उन सीटों पर जहां त्रिकोणीय मुकाबले की संभावना है, अगर दलित वोटों का विभाजन होता है और भाजपा का समर्थन लोजपा को जाता है, तो जदयू की मुश्किलें उन सीटों पर काफी बढ़ जाएंगी।नीतीश कुमार के लिए विडंबना यह है कि चौथी बार उनके सीएम बनने का मुख्य विरोध महागठबंधन से नहीं बल्कि भाजपा की ओर से उभर रहा है। सितंबर तक कई ओपिनियन पोल में महागठबंधन को एनडीए से काफी पीछे बताया जा रहा था।


भाजपा में एक तबके के बारे में विचार है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर सवार होकर सत्ता विरोधी लहर को हराकर फिर से सीएम बनना चाहते हैं। भाजपा इस बार इतनी आसानी से नीतीश कुमार को सीएम पद नहीं देना चाहेगी और चिराग पासवान एनडीए के लिए नीतीश कुमार की लोकप्रियता का परीक्षण करेंगे।जदयू के खिलाफ लोजपा का विद्रोह चुनाव पूर्व गठबंधन की गतिशीलता को बदल सकता है, जैसा कि महाराष्ट्र में हुआ था, जहां शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबंधन कर 2019 में विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की मदद से सरकार बनाई।


हालांकि शिवसेना ने इस आधार पर छोड़ दिया कि वह उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी, लेकिन विश्लेषकों ने कहा कि पार्टी को लग रहा था कि भाजपा का वोट शेयर बढ़ रहा है।यद्यपि राष्ट्रीय जनता दल लालू प्रसाद की पैंतरेबाज़ी की क्षमता के बिना चुनाव में नीतीश कुमार से सावधान है क्योंकि उन्होंने 2017 में जीए को फेंक दिया था, कांग्रेस नहीं है। वाम दल, जो महागठबंधन का हिस्सा भी हैं, भाजपा को बाहर रखने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के इच्छुक हो सकते हैं।


कुल मिलाकर अब यही कहा जा सकता है कि बिहार में आरजेडी, कांग्रेस, भाजपा, जेडीयू और लोजपा अपने-अपने दम पर कितनी सीटों को अपने पाले में ला पाएंगी, इसका फैसला तो तीन चरणों में होने वाले चुनाव के रिजल्ट, जो कि 10 नवंबर को घोषित हो जाएगा, पर निर्भर करता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है, हो सकता है कि जैसा महाराष्ट्र में हुआ, उसी प्रकार का एक नया समीकरण बिहार में भी 10 नवंबर को देखने को मिल जाए।