बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

"अंधेरे नगरी चौपट राजा " कवि नारायण डबराल की  कलम से...



 


कवि नारायण डबराल की  कलम से  :-


 


"अंधेरे नगरी चौपट राजा "


अंधेर  नगरी ,  चौपट  राजा
टका सेर भाजी,टका सेर खाजा।
मुफ़्त में ऊर्जा , मुफ़्त  में   पानी 
मुफ़्त की यात्रा,पड़ोसी तू भी आजा।
मान न सम्मान मुफ़्त में ही खाजा
टका सेर भाजी टका सेर खाजा।


पंक्ति में खड़ा,भिक्षुओं सा हूँ मैं
हाथ  पसारे  असहाय सा हूं  मैं ।
ऊपर वाले ने दिया सब कुछ मुझको
राजा ने भी बोटियाँ डाली है मुझको।
मुँह  छुपाकर  तू  भी ले  भाग  जा 
मज़े  में अंधेर  नगरी  चौपट  राजा।


कलंक और  मृत्यु  एक  समाना
दया केवल निर्बल पर ही दिखाना।
सक्षम पर दया, रवि को दीप दिखाना
मुफ़्त से सम्मान पर है चोट लगाना।
नगरी पे कलंक पर तू न उलझ जा
टका सेर भाजी  टका  सेर खाजा ।


माँगने वाले को ठोकर ही मिलेगी 
नगरी आत्मनिर्भर  कभी न बनेगी।
मुफ़्त से, औरों की दया पर रहोगे 
हाथ जोड़े उनके याचक ही रहोगे।
जैसी होगी प्रजा वैसा होगा राजा 
न अंधेर हो  नगरी न  चौपट राजा ।


राजा को येन केन स्वार्थ निभाना
स्वयं व वंश  को  आगे  बढ़ाना ।
अपंगु यदि राज्य,दुश्मन हों हज़ार
साम्राज्य यदि सबल,प्रजा खुशहाल।
टुकड़ों  के आगे कमर न झुका  जा
या टका सेर भाजी टका सेर खाजा।


स्वार्थ की  खैरात निक्कमा बनाती
नमक,  हराम  का खाना सिखाती।
पसीने की कमाई की रंगत अलग ही
मुफ़्तख़ोरी ,घूसख़ोरी की बहिन ही।
रहें क्यों आश्रित  हम स्वयं के राजा
न टका सेर भाजी न टका सेर खाजा ।