शुक्रवार, 13 मार्च 2020

सिद्धकवि स्व.सदानंद डबराल - संक्षिप्त परिचय...

सिद्धकवि स्व. सदानंद डबराल - संक्षिप्त परिचय


लेखक स्व. पार्थसारथी डबराल की कलम से...



      मुस्लिम और अंग्रेजी शासकों की उपेक्षा से स्नेहक्षीण संस्कृत वांग्मय की दीपशिखा को बीसवीं शताब्दी में फिर से उद्दीप्त करने वाले मनीषियों में सिद्ध कवि सदानंद डबराल का विशिष्ट स्थान है ।


अपने महाकाव्य,गीतिकाव्य,  स्फुट कविताओं तथा व्याख्यों से उसे श्री सदानंद जी ने संस्कृत साहित्य की सृजनशीलता के क्रम को बनाए रखा ।


सदानंद जी का जन्म सन 1877 ईस्वी में ग्राम तिमली जिला गढ़वाल में हुआ था । पिता श्री दामोदर जी एक सिद्ध तांत्रिक, समाज सुधारक और प्रभावशाली व्यक्ति थे।



साभार: माधुरी डबराल


उन्होंने 1882 ईसवीं   में तिमली में संस्कृत पाठशाला की स्थापना की थी । बाल्यकाल में अस्वस्थ रहने के कारण कवि की शिक्षा मात्र प्राज्ञ तक ही हो पाई,  किंतु गुरु के आशीर्वाद से चमत्कारिक रूप से सहसा इन्हें देववाणी संस्कृत सिद्ध हो गई और यह उच्च कोटि के संस्कृत पद्य रचना करने लगे।  यहां तक कि इनकी कविता की अनुगूंज वाराणसी के विद्वत्समाज को भी विस्मय- विभोर करने लगी।  विद्या और कविता सिद्ध हो जाने के कारण यह अपने ग्रंथों में नाम से पूर्व सिद्ध कवि लिखने लगे।  किंतु कृतज्ञ कवि ने इस सफलता की पृष्ठभूमि में गुरु कृपा को ही एकमात्र कारण माना।  वे अपने उत्कृष्ट महाकाव्य नारायणीयम्  में लिखते हैं-


"श्री गुरु -पादारविंद प्रसाद --सिद्ध कवि सदानंद प्राणीतम  नर नारायणीयम काव्यम ।"


विद्या सिद्ध हो जाने पर यह शास्त्री आचार्य तक की कक्षाओं को साधिकार पढ़ाने लगे और दूर निकट के क्षेत्रों में भागवत,  हरिवंश आदि पुराणों की कथाओं का पाठ करने लगे ।


व्यवसाय के रूप में उन्होंने अध्यापन चुनाव।


यह श्री रघुनाथ संस्कृत पाठशाला देवप्रयाग के संस्थापक प्राचार्य रहे।


10 वर्ष तक इस विद्यालय में अध्यापन करते हुए इन्होंने यहां अनेक काव्य ग्रंथ लिखे। नर नारायणीयम की रचना भी यही हुई । देवप्रयाग के पश्चात कवि ने श्रीनगर में अध्ययन कार्य किया । तदनंतर अपने ग्राम तिमली लौट कर वहां की पाठशाला का संचालन करने लगे । स्तरीय शिक्षण के कारण तिमली को लोग छोटी काशी भी कहते थे ।


इसी अपने पैतृक ग्राम में सन 1950 ईसवीं में 73 वर्ष की आयु में कवि ने संसार से विदाई ली। अनेक फुटकर श्लोक और कविताओं के अतिरिक्त सिद्ध कवि ने  मुख्यतः पाँच ग्रंथों की रचना की । (1) नारायणीयम महाकाव्य (2)  कीर्ति विलास ( वृत्त काव्य) (3) दिव्य चरितम (महाकाव्य ) (4) रास विलास (गीतिकाव्य ) तथा लाहौर से प्रकाशित नैषधीयचरितम् के प्रथम पांच वर्गों की व्याख्या ।


 दिव्य चरितम संप्रति लुप्त है । किंतु कवि के पुत्र वाणी विलास शास्त्री कहते हैं कि उन्होंने दिव्य चरित्र की प्रथम पांडुलिपि पड़ी थी । कीर्ति विलास के  भी खंडित अंश ही प्राप्त होते हैं । कुछ पन्ने उत्तराखंड के इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल के व्यक्तिगत पुस्तकालय में संरक्षित हैं । 


ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने प्रारंभ में छोटे बड़े आकार के पन्नों में कीर्ति विलास की दो प्रतियां बनाई थी।  इन पंक्तियों के लेखक पार्थसारथी डबराल  ने बचपन में कलात्मक आकर्षक अक्षरों में लिखी दोनों प्रतियों को देखा था।


कीर्ति विलास भी देवप्रयाग में ही लिखा गया। काव्य के प्रथम श्लोक में कवि ने अपने द्वारा संचालित संस्कृत पाठशाला की ही मंगल कामना की थी । 


कामधुग्भवतु काममियं  गौ : 
पेय - पावन पयोरस पूरा। ।
चारुवृत्त --कुच --मंडल --माला
कीर्ति --कल्पवन --संस्कृतशाला ।।
 कीर्ति विलास 1 / 1


नारायणीयम महाकाव्य कवि की सर्वोत्कृष्ट रचना है,  जिसमें धर्म/पुत्र  "नर" और "नारायण" की उग्र तप: सिद्धि का वर्णन है ।
श्रीहर्ष के पश्चात भी महाकाव्य प्रणयन का क्रम बना रहा,  किंतु स्तरीय महाकाव्य परंपरा को बीसवीं वीं सदी में पुनः प्रकट आने वाले महा कवियों में एक पूर्ण श्लोक नाम सिद्ध कवि सदानंद डबराल का भी है।


परंपरागत छंदों में स्तरीय प्रबंध काव्य का प्रेमोपहार नर नारायणीयम भी है , जो रस सिद्ध कवि ने इस शताब्दी को प्रदान किया।


यह सदी आंग्ल भाषा के प्रेम पाश में आबद्ध होकर भारतीय संस्कृति की आश्रय भूता संस्कृत को मृत भाषा कहकर उसी पश्चिम को अपनाने लगी जहां पूर्व का सूरज डूबता है।


इस शताब्दी में संस्कृत की सृजनात्मक गरिमा को पुनः स्थापित करने वाले मनुष्यों में इस सिद्ध कवि की उपस्थिति अपना विशेष महत्व रखती है।


नर नारायणीयम नर और नारायण की उग्र तपस्या पर रचित शांतर समय पौराणिक काव्य है।  यह दोनों तपस्वी फिर अपनी साधना से पर्वत आकार स्थिति में जड़ी भूत हो गए।  संप्रति नारायण पर्वत पर ही बद्रीनाथ मंदिर अवस्थित है और सामने नारायण का सहचर अनुज नर पर्वत साक्षी रूप में अपनी हिमधवल आध्यात्मिक गरिमा का उद्घोष कर रहा है । उनकी द्रविभूत तपस्या विष्णुपदी गंगा के द्वारा भारत भूमि को पवित्र करती है।


यह महाकाव्य वि0 सम्वत 1974  (सन 1914 ईस्वी) को पूर्णता को प्राप्त हुआ । प्रणयन स्थली अलकनंदा -भागीरथी की मिलन भूमि देवप्रयाग नगरी है।  जहां कवि श्री रघुनाथ संस्कृत पाठशाला में प्राचार्य थे । तिथि का उल्लेख स्वयं कवि ने अंक व्यंजक शब्दों में किया है:-


देवप्रयागनगरे टिहरी नरेशे 
प्रणाययदोs ब्धि मुनि गोब्जमिते ही वर्षे ।।  
 नर 0 9/57


प्रजापति धर्म की पत्नी मूर्ति से नर नारायण नामक दो पुत्रों की उत्पत्ति हुई दोनों पुत्रों ने उग्र तपस्या करने के लिए माता मूर्ति से आज्ञा मांगी । तपश्चरण  हेतु वे बद्रीनाथ जाना चाहते थे । माता मूर्ति पुत्र मोह से अभिभूत हुई।  नारायण ने मां के मोह को दूर किया। अंततः मां की अनुमति लेकर नर और नारायण बद्री वन जाने का उपक्रम करने लगे ।


नर और नारायण अविभाज्य रूप से  संपृक्त  दो ऋषि हैं। इसलिए इनको देवौ, ऋषी ( द्विवचन ) ऋषिसत्तमौ भी कहा जाता है।


फिर भी द्वापर के रूपांतरण में "नर" अर्जुन तथा "नारायण" कृष्ण के रूप में मान्यता प्राप्त हैं । इसीलिए इस महाकाव्य के नौवें सर्ग में संक्षिप्त में कृष्णार्जुन की द्वापर लीला सन्नद्ध की गई है । फिर भी माता मूर्ति के जेष्ठ पुत्र होने के कारण नायकत्व से नारायण ही मंडित होते हैं । 


द्वितीय सर्ग में भी यह तथ्य उजागर होता है कि नारायण अपने अनुज के साथ तपस्या करने विशाला (बद्रीनाथ धाम का प्राचीन नाम)  की ओर गए थे।